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वह लज्जा को त्याग देता है । निस्सन्देह नैराश्य ने यह भीषण रूप धारण किया है। सामान्य दशाओं में नैराश्य अपने यथार्थ रूप में आता है; पर गर्वशील प्राणियों में वह परिमार्जित रूप ग्रहण कर लेता है। यहां वह हृदयगत कोमल भावों का अपहरण कर लेता है-चरित्र में अस्वाभाविक विकास उत्पन्न कर देता है-मनुष्य लोकलाज और उपहास की ओर से उदासीन हो जाता है ; नैतिक बंधन टूट जाते हैं। यह नैराश्य की अन्तिम अवस्था है। हृदयनाथ इन्हीं विचारों में मग्न कि जागेश्वरी ने कहा-अब क्या करना होगा। नाथ-क्या बताऊँ जागेश्वरी-कोई उपाय है ? हृदयनाथ-बस, एक ही उपाय है, पर उसे ज़बान पर नहीं ला सकता।