पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/६९

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मानसरावर माया-और तो कुछ नहीं गया । बरतन सब पड़े हुए हैं । सन्दुक भी बन्द पड़े हुए हैं। निगोड़े को ले ही जाना था तो, मेरी ची ले जाता। पराई चीज टहरी । भगवान्, उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगी। पण्डित-अब गहने का मजा मिल गया न ? माया-हाय भगवान्, यह अपजस बदा था। पण्डित-कितना समझाके हार गया, तुम न मानी, न मानी ! रात की बात में ६००) निकल गये ! अब देखू भगवान् कैसे लाज रखते हैं। माया-अभागे मेरे घर का एक-एक तिनका चुन के जाते तो मुझे इतना दुःख न होता । अभी बेचारी ने नया ही बनवाया था। पण्डित-खूब मालूम है, २० तोले का था ? माया-२० ही तोले का तो कहती थीं। पण्डित-धिया बैठ गई और क्या ? माया-कह दूँगी, घर में चोरी हो गई। क्या जान लेंगी ? अव उनके लिए कोई चोरी थोड़े ही करने जायगा । पण्डित--तुम्हारे घर से चीज़ गई, तुम्हें देनी पड़ेगी। उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि चोर ले गया या तुमने उठाके रख लिया। पतियायेंगो ही नहीं। माया -तो इतने रुपये कहाँ से आयेंगे ? पण्डित-कहीं न कहीं से तो आयेंगे ही, नहीं तो लाज कैसे रहेगी ; मगर को तुमने बड़ी भूल। माया-भगवान् से मँगनी की चीज़ भी न देखी गई। मुझे काल ने घेरा था, नहीं तो घड़ी-भर गले में डाल लेने से ऐसा कौन-सा बड़ा सुख मिल गया ! मैं हूँ हो अभागिनी। पण्डित-अब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा ? चुप होके बैठो। पोसिन से कह देना, घबरामी नहीं । तुम्हारो बीज जब तक लौटा न देंगे, तब तक हमें चैन न भायेगी। ( ४ ) पण्डित बालकराम को अब नित्य यही चिन्ता रहने लगी कि किसी तरह भार बने। यो अगर राट उल्ट देते तो कोई बात न थी। पड़ोसिन को सन्तोष हो करना