लापन सोतासरन भी पहले तो बहुत रोया-धोया, यहाँ तक कि घर छोड़कर भागा जाता था, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते थे बच्चों का शोक उसके दिल से मिटता जाता था। संतान का दुख तो कुछ माता ही को होता है। धीरे-धीरे उसका जो सँभल दाया। पहले की भांति मित्रों के साथ हँसो-दिल्लगो होन लगो। यारों ने और भो चन पर चढ़ाया । अन घर का मालिक था, जो चाहे कर सकता था। कोई उसका हाथ रोकनेवाला न था । सैर सपाटे करने लगा । यहाँ तो लीला को रोते देख उसकी मखें सजल हो जाती थीं, कहाँ अब उसे उदास और शोक-मग्न देखकर झुमला उठता । ज़िन्दगी रोने ही के लिए तो नहीं है। ईश्वर ने लड़के दिये थे, ईश्वर हो ने छीन लिये । क्या लड़कों के पीछे प्राण दे देना होगा ? लोला यह बातें सुनकर भौंचक रह जाती । पिता के मुंह से ऐसे शब्द निकल सहते हैं ! ससार में ऐसे प्राणी भी हैं। होली के दिन थे। मर्दाने में गाना-बजाना हो रहा था। मित्रों की दावत का भी सामान किया गया था। अन्दर लोला जमीन पर पड़ी हुई रो रही थी। त्योहारों के दिन उसे रोते ही करते थे। आज वच्चे होते तो अच्छे-अच्छे काड़े पहने कैसे उछलते-फिरते । वही न रहे तो कहाँ की तोज और कहाँ के लोहार ! सहसा सीतासरन ने आकर कहा-क्या दिन-भर रोतो हो रहोगी? रा कपड़े तो बदल डालो, आदमी बन जाओ। यह क्या तुमने अपनी गत बना रखा है। लोला - तुम जाओ अपनी महफिल में बैठो, तुम्हें मेरो क्या फिक पड़ी है ? सीतासरन-क्या दुनिया में और किसो के लड़के नहीं मरते ? तुम्हारे हो क्षिर यह मुसीवत आई है? लीला- यह बात कौन नहीं जानता 1 अपना-अपना दिल हो तो है । उस पर किसी का वश है ? सीतासरन-मेरे साथ भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है ? लीला ने कुतूहल से पति को देखा, मानों उनका आशय नहीं समझी। फिर मुंह फेरकर रोने लगी। सीतासरन-मैं अब इस नहफ्त का अन्त कर देना चाहता हूँ। अगर तुम्हारा अपने दिल पर काबू नहीं है तो मेरा भी अपने दिल पर काबू नहीं है । मैं जिन्दगी- भर मातम नहीं मना सकता। 1
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/७७
दिखावट