पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खुचड़ १०७ होती ; पर रामेश्वरी उनके सेवा-सत्कार में जी-जान से लगी हुई थी। फिर वह भला क्यों हटने लगे। एक दिन कुदनलाल ने कहा-तुमने यह बुरा रोग पाला। रामेश्वरी ने चौंककर पूछा-कैसा रोग ? 'इन्हें टहला क्यो नहीं देती।" 'मेरा क्या बिगाड़ रहे हैं ? 'कम-से-कम १) की रोज़ चपत दे रहे हैं। और, अगर यही खातिरदारी रही, तो शायद जीते-जी टलेगे भी नहीं। 'मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि कोई दो-चार दिन के लिए श्रा जाय, तो उसके सिर हो जाऊँ । जब तक उनकी इच्छा हो, रहें । 'ऐसे मुफ्तखोरों का सत्कार करना पाप है । अगर तुमने इसे इतना सिर न चढाया होता, तो अब तक लबा हुआ होता। जब दिन में तीन बार भोजन और पचासों बार पान मिलता है, तो उसे कुत्ते ने काटा है, जो अपने घर जाय। 'रोटी का चोर बनना तो अच्छा नहीं। 'कुपात्र और सुपात्र का विचार तो कर लेना चाहिए । ऐसे पालसियों को, खिलाना-पिलाना वास्तव मे उन्हें जहर देना है। ज़हर से तो केवल प्राण निकल जाते हैं, यह ख़ातिरदारी तो आत्मा का सर्वनाश कर देती है। अगर यह हजरत महीने-भर भी यहाँ रह गये, तो फिर ज़िदगी-भर के लिए वेकार हो जायेंगे। फिर इनसे कुछ न होगा, और इसका सारा दोष तुम्हारे सिर . . ~ होगा। तर्क का ताता बंध गया। प्रमाणों की झडी लग गई। रामेश्वरी खिसिया- कर चली गई । कुदनलाल उससे कभी सतुष्ट भी हो सकते हैं, उनके उपदेशा की वर्षा कभी वद भी हो सकती है, यह प्रश्न उसके मन में बार- बार उठने लगा। एक दिन देहात से भैंस का ताज़ा घी अाया। इधर महीनों से बाज़ार का घी खाते-खाते नाक में दम हो रहा था। रामेश्वरी ने उसे खोलाया,उसमें