११८ मानसरोवर श्रद्धा ने एक लंबी सांस लेकर कहा-अम्माजी! प्रम-विहीन संसार में कौन है ? प्रम मानव-जीवन का श्रेष्ठ अंग है। यदि ईश्वर की ईश्वरता कहीं देखने में आती है, तो वह केवल प्रम में । जब कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा, जो मुझे वरने मे अपनी मानहानि न समझेगा, तो मैं तन-मन-धन से उसकी पूजा करूँगी ; पर किसके सामने हाथ पसारकर प्रेम की भिक्षा मागू ? यदि किसी ने सुधार के क्षणिक आवेश में विवाह कर भी लिया, तो मैं प्रसन्न न हो सकूँगी। इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं विवाह का विचार ही छोड़ दूं। ( ३ ) इन्हीं दिनो महिला-मडल का एक उत्सव हुआ। कॉलेज के रसिक विद्यार्थी काफ़ी संख्या मे समिलित हुए। हॉल में तिल भर भी जगह खाली न थी। श्रद्धा भी आकर स्त्रियों की सबसे अत की पंक्ति में खड़ी हो गई। उसे यह सब स्वांग मालूम होता था । आज प्रथम ही बार वह ऐसी सभा में सम्मिलित हुई थी। सभा की कार्रवाई शुरू हुई। प्रधान महोदय की वक्तृता के पश्चात् प्रस्ताव पेश होने लगे और उनके समर्थन के लिए वक्तृताएँ होने लगी; किंतु महिलाएँ या तो अपनी वक्तृताएँ भल गयीं, या उनपर सभा का रोब ऐसा छा गया कि उनकी वक्तृता-शक्ति लोप हो गई। वे कुछ टूटे-फूटे जुमले बोलकर बैठने लगीं। सभा का रग बिगड़ने लगा। कई लेडियां बड़ी शान से प्लेटफार्म पर आई; किंतु दो-तीन शब्दो से अधिक न बोल सकी। नव- युवको को मज़ाक उड़ाने का अवसर मिला । कहकहें पड़ने लगे, तालियां बजने लगीं । श्रद्धा उनकी यह दुर्जनता देखकर तिलमिला उठी, उसका अग- प्रत्यग फड़कने लगा। प्लेटफार्म पर जाकर वह कुछ इस शान से चोली कि सभा पर प्रातक छा गया। कोलाहल शान्त हो गया । लोग टकटकी बांधकर उसे देखने लगे। श्रद्धा स्वर्गीय बाला की भांति धारावाहिक रूप मे बोल रही थी। उसके प्रत्येक शब्द से नवीनता, सजीवता और दृढ़ता प्रतीत होती थी। उसके नवयौवन की सुरभि भी चारों ओर फैलकर सभा-मडल को अवाक् कर रही थी। सभा समाप्त हुई । लोग टीका-टिप्पणी करने लगे।
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