प्रेरणा एक दिन मैं अपनी कक्षा को पढ़ा रहा था कि पाठशाला के पास एक मोटर आकर रुकी और उसमें से उस जिले के डिप्टी कमिश्नर उतर पड़े। मै उस समय केवल एक कुर्ता और धोती पहने हुए था। इस वेश में एक हाकिम से मिलते हुए शर्म आ रही थी। डिप्टी कमिश्नर मेरे समीप आये तो मैंने झेपते हुए हाथ बढाया ; मगर वह मेरे हाथ मिलाने के बदले मेरे पैरों की ओर झुके और उनपर सिर रख दिया । मैं कुछ ऐसा सिटपिटा गया कि मेरे मुंह से एक शब्द भी न निकला। मैं अँगरेजी अच्छी लिखता हूँ, दर्शनशास्त्र का भी प्राचार्य हूँ, व्याख्यान भी अच्छे दे लेता हूँ ; मगर इन गुणो में एक भी श्रद्धा के योग्य नहीं। श्रद्धा तो ज्ञानियों और साधुओं ही के अधिकार की वस्तु है। अगर मैं ब्राह्मण होता, तो एक बात थी। हालांकि एक सिविलियन का किसी ब्राह्मण के पैरों पर सिर रखना अचिंतनीय है। मैं अभी इसी विस्मय में पड़ा हुआ था कि डिप्टी कमिश्नर ने सिर उठाया और मेरी तरफ देखकर कहा-आपने शायद मुझे पहचाना नहीं। इतना सुनते ही मेरे स्मृति-तेत्र खुल गये, बोला-आपका नाम सूर्य- प्रकाश तो नहीं है ? 'जी हाँ, मैं आपका वही अभागा शिष्य हूँ ।' 'बारह-तेरह वर्ष हो गये। सूर्यप्रकाश ने मुस्कराकर कहा- अध्यापक लड़कों को भूल जाते हैं ; पर लड़के उन्हें हमेशा याद रखते हैं । मैंने उसी विनोद के भाव से कहा-तुम जैसे लड़को को भूलना अस- भव है। सूर्यप्रकाश ने विनीत स्वर मे कहा- उन्हीं अपराधो को क्षमा कराने के लिए सेवा मे आया हूँ। मैं सदैव आपकी ख़बर लेता रहता था। जब आप इगलैण्ड गये, तो मैंने आपके लिए बधाई का पत्र लिखा , पर उसे भेज न सका । जब आप प्रिंसिपल हुए, मै इगलैण्ड जाने को तैयार था। वहाँ मैं पत्रिकाओं मे आपके लेख पढ़ता रहता था। जब लौटा, तो मालूम हुआ कि आपने इस्तीफा दे दिया और कहीं देहात मे चले गये हैं । इस जिले में आये हुए मुझे एक वर्ष से अधिक हुअा; पर इसका ज़रा भी अनुमान न था कि
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