पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/११

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मानसरोवर

मुझे मिनिस्टर साहब से इतनी आशा अवश्य थी कि वह कम से कम इस विषय में न्याय-परायणता से काम लेगे; मगर उन्होने न्याय की जगह नीति को मान्य समझा, और मुझे कई साल की भक्ति का यह फल मिला कि मैं पदच्युत कर दिया गया। संसार का ऐसा कटु अनुभव मुझे अब तक न हुआ था। ग्रह भी कुछ बुरे आ गये थे, उन्हीं दिनों पत्नी का देहात हो गया। अतिम दर्मन भी न कर सका। संध्या-समय नदी तट पर सैर करने गया था। वह कुछ अस्वस्थ थीं। लौटा, तो उनकी लाश मिली। कदाचित्हृ दय की गति बंद हो गई थी। इस प्राघात ने कमर तोड़ दी। माता के प्रसाद और आशीर्वाद से बड़े बड़े महान् पुरुष कृतार्थ हो गये हैं। मैं जो कुछ हुश्रा, पत्नी के प्रसाद और आशीर्वाद से हुआ ; वह मेरे भाग्य की विधात्री यीं। कितना अलौकिक त्याग था, कितना विशाल धैर्य। उनके माधुर्य मे तीक्ष्णता का नाम भी न था। मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी उनकी भृकुटि सकुचित देखी हो। निराश होना तो जानती ही न थीं। मैं कई बार सख्त बीमार पड़ा हूँ। वैद्य भी निराश हो गये हैं ; पर वह अपने धैर्य और शाति से अणुमात्र भी विचलित नहीं हुई। उन्हें विश्वास था कि मैं अपने पति के जीवन-काल में मरूँगी और वही हुआ भी। मै जीवन में अब तक उन्हीं के सहारे खड़ा था! जब वह अवलंब ही न रहा, तो जीवन कहाँ रहता। खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है। जीवन नाम है, सदैव आगे बढ़ते रहने की लगन का। वह लगन गायब हो गई। मैं ससार से विरक्त हो गया। और एकातवास में जीवन के दिन व्यतीत करने का निश्चय करके एक छोटे-से गाँव मे जा बसा। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे टीले थे, एक ओर गगा बहती थी। मैंने नदी के किनारे एक छोटा-सा घर बना लिया और उसी में रहने लगा।

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मगर काम करना तो मानवी स्वभाव है । बेकारी में जीवन कैसे कटता। मैने एक छोटी सी पाठशाला खोल ली ; एक वृक्ष की छांह में, गांव के लड़कों को जमा कर कुछ पढ़ाया करता था। उसकी यहाँ इतनी ख्याति हुई कि आसपास के गांव के छात्र भी आने लगे।