प्रेम का उदय १४३ - पान खाने का यही मज़ा है। आखिर कडवी मिर्च भी तो लोग मजेसे खाते हैं ! गुलाबी साडी पहन और फूलो का गजरा गले में डालकर उसने आईने मे अपनी सूरत देखी, तो उसके प्राबनूपी रग पर लाली दौड़ गई। आप ही आप लज्जा से उसकी आँखे झुक गई। दरिद्रता की आग से नारीत्व भी भस्म हो जाता है, नारीत्व की लज्जा का क्या जिक्र । मैले-कुचैले कपड़े पहन- कर लजाना ऐसा ही है, जैसे कोई चबैने मे सुगन्ध लगाकर खाये । इस तरह सजकर बंटी भोंदू की राह देखने लगी। जब अब भी वह न आया, तो उसका जी मुझलाने लगा। रोज तो साँझ ही से द्वार पर पड़ रहते थे, आज न जाने कहाँ जाकर बैठ रहे । शिकारी अपनी बदूक भर लेने के बाद इसके सिवा और क्या चाहता है कि शिकार सामने आये। बटी के सूखे हृदय में आज पानी पडते ही उसका नारीत्व अकुरित होगया । झंझलाहट के साथ उसे चिन्ता भी होने लगी। उसने बाहर निकलकर कई बार पुकारा । उसके कठ-स्वर में इतना अनुराग कभी न था। उसे कई बार भान हुआ कि भोंदू आ रहा है, वह हर बार सिरकी के अदर दौड़ आई और आईने मे सूरत देखी कि कुछ बिगड़ न गया हो। ऐसी धड़कन, ऐसी उलझन उसकी अनुभूति से बाहर थी। वटी सारी रात भोदू के इतजार में उद्विग्न रही। ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, उसकी शका तीव्र होती जाती थी। अाज ही उसके वास्तविक जीवन का श्रारभ हुआ था और आज ही यह हाल | प्रातःकाल वह उठी, तो अभी कुछ अँधेरा ही था। इस रतजगे से उसका चित्त खिन्न और सारी देह अलसाई हुई थी। रह-रहकर भीतर से एक लहर भी उठती थी, अखेि भर-भर पाती थीं। सहसा किसी ने कहा-अरे बटी, भोंदू रात पकड़ गया। > बटी थाने पहुंची तो पसीने में तर थी और दम फूल रहा था। उसे भोंदू पर दया न थी, क्रोध आ रहा था। सारा ज़माना यही काम करता है और चैन की बसी बजाता है । इन्होंने कहते-कहते हाथ भी लगाया, तो चूक गये।
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