पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१५७

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मानसरोवर छैला बना घूमने लगा। और भी छूटा साड़ हो गया। पहले स्त्री से झगड़ा हो जाने का कुछ डर था । अब वह भी न रहा । अबकी नौकरी पर से लौटा, तो सीधे मुलिया के घर पहुंचा। और इधर-उधर की बाते करने के बाद बोला--भाभी, अब तो मेरी अभिलाषा पूरी करोगी या अभी और कुछ बाकी है। अब तो भैया भी नहीं रहे। इधर मेरी घरवाली भी सिधारी । मैंने तो उसका गम भुला दिया । तुम कब तक भैया के नाम को रोती रहोगी। मुलिया ने घृणा से उसकी ओर देखकर कहा- भैया नहीं रहे तो क्या हुआ, भैया की याद तो है, उनका प्रम तो है, उनकी सूरत तो दिल में हैं, उनकी बाते तो कानों मे हैं । तुम्हारे लिए और दुनिया के लिए वह नहीं हैं, मेरे लिए वह अब भी वैसे ही जीते-जागते हैं । मैं अब भी उन्हें वैसे ही बैठे देखती हूँ । पहले तो देह का अतर था। अब तो वह मुझसे और भी नगीच हो गये हैं। और ज्यों-ज्यों दिन बीतेगे और भी नग च होते जायेंगे । भरे पूरे घर में दाने की कौन कदर करता है । जब घर खाली हो जाता है, तब मालूम होता है कि दाना क्या है। पैसेवाले पैसे की कदर क्या जाने । पैसे की कदर तब होती है, जब हाथ खाली हो जाता है । तब आदमी एक-एक कौड़ी दात से पकड़ता है। तुम्हें भगवान ने दिल ही नहीं दिया, तुम क्या जानो सोहचत क्या है । घरवाली को मरे. अभी छः महीने भी नहीं हुए और तुम सांड़ बन बैठे । तुम मर गये होते तो इसी तरह वह भी अब तक किसी के पास चली गई होती ! मैं जानती हूँ कि मैं मर जाती, तो मेरा सिरताज 'जन्म' भर मेरे नाम को रोया करता। ऐसे ही पुरुषो की स्त्रियाँ उनपर प्राण देती हैं। तुम जैसे सोहदो के भाग मे पत्तन चाटना लिखा है । चाटो; मगर खबरदार, आज से मेरे घर मे पाव न रखना, नहीं तो जान से हाथ धोनोगे। बस । निकल जाश्रो। उसके मुख पर ऐसा तेज, स्वर मे इतनी कटुता थी कि राजा को ज़बान खोलने का भी साहस न हुआ । चुपके से निकल भागा। । ,