१६० मानसरोवर सेठजी ने पूछा-मोटर लोगे वेटा, अपनी अम्मा से रुपये लेकर भैया के साथ जले जाओ.। खूब अच्छी मोटर लाना। राजा ने माता के अासू और पिता का यह स्नेह देखा, तो उसका बाल. हठ जैसे पिघल गया । बोला-अभी नहीं लू गा। सेठजी ने पूछा-क्यो? 'जब आप अच्छे हो जायँगे तब लूंगा।' सेठजी फूट-फूटकर रोने लगे। ( २ ) तीसरे दिन सेठ रामनाथ का देहांत हो गया। धनी के जीने से दुःख बहुतो को होता है, सुख थोड़ों को। उनके मरने से दुःख थोड़ों को होता है, सुख बहुतो को । महाब्राह्मणों की मंडली अलग सुखी है, पडितजी अलग खुश हैं और शायद बिरादरी के लोग भी प्रसन्न हैं; इसलिए कि एक बराबर का श्रादमी कम हुआ। दिल से एक कोटा दूर हुआ । और पट्टीदारो का तो पूछना ही क्या। अब वह पुरानी कसर निका- लेगे । हृदय को शीतल करने का ऐसा अवसर बहुत दिनों के बाद मिला है। आज पांचवा दिन है । वह विशाल भवन सूना पड़ा है। लड़के न रोते हैं, न हॅसते हैं । मन मारे मा के पास बैठे हैं और विधवा भविष्य की अपार चिंताग्रो के भार से दबी हुई निर्जीव-सी पड़ी है। घर में जो रुपये बच रहे थे, वे दाह-क्रिया की भेट हो गये और अभी सारे संस्कार बाकी पड़े हैं । भग- वान ! कैसे बेड़ा पार लगेगा। किसी ने द्वार पर आवाज़ दी । महरा ने आकर सेठ धनीराम के श्राने की सूचना दी। दोनों बालक बाहर दौड़े। सुशीला का मन भी एक क्षण के लिए हरा हो गया। सेठ धनीराम बिरादरी के सरपंच थे। अबला का क्षुब्ध- हृदय सेठजी की इस कृपा से पुलकित हो उठा । अाखिर बिरादरी के मुखिया हैं। यह लोग अनाथों की खोज-खबर न ले तो कौन ले। धन्य है यह पुण्यात्मा लोग, जो मुसीबत में दोनों की रक्षा करते हैं। यह सोचती हुई सुशीला घूघट निकाले बरोठे में आकर खडी हो गई । देखा तो धनीरामजी के अतिरिक्त और भी कई सनन खडे हैं। .
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