पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१७१

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मानसरोवर है। हमें क्या मालूम था कि सेठ रामनाथ के परिवार की यह दशा है। सुशीला-तो आपकी निगाह में कोई अच्छा बर है ! यह तो श्राप जानते ही है, मेरे पास लेने-देने को कुछ नहीं है। झाबरमल-(इन सेठजी का यही नाम था)-लेने-देने का कोई झगड़ा नहीं होगा बाईजी । ऐसा घर है कि लड़की श्राजीवन सुखी रहेगी। लड़का भी उसके साथ रह सकता है । कुल का सच्चा, हर तरह से सम्पन्न परिवार है। हो, वर दोहाजू ( दुजबर ) है। सुशीला-उम्न अच्छी होनी चाहिए, दोहाजू होने से क्या होता है । झाबरमल-उन भी कुछ ज्यादा नहीं, अभी चालीसा ही साल है उसका पर देखने में अच्छा हृष्ट-पुष्ट है । मर्द की उम्न उसका भोजन है। बस यह समझ लो कि परिवार का उद्धार हो जायगा। सुशीला ने अनिच्छा के भाव से कहा--अच्छा, मैं सोचकर जवाब दूंगी। एक बार मुझे दिखा देना। झाबरमल-दिखाने को कहीं नहीं जाना है बाई । वह तो तेरे सामने ही खडा है। सुशीला ने घृणापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखा। इस पचास साल के बुड्ढे की यह हवस ! छाती का मास लटककर नाभी तक श्रा पहुंचा है, फिर भी विवाह की धुन सवार है । यह दुष्ट समझता है कि प्रलोभनों में पड़- मैं अपनी लड़की उसके गले बाँध दूंगी। वह अपनी बेटी को आजीवन क्वारी रखेगी; मृतक से विवाह करके उसका जीवन नष्ट न करेगी। पर उसने अपने क्रोध को शात किया । समय का फेर है, नहीं ऐसों को उससे ऐसा प्रस्ताव करने का साहस ही क्यों होता। बोली-श्रापकी इस कृपा के लिए आपको धन्यवाद देती हूँ सेठजी पर मैं कन्या का विवाह आपसे नही कर सकती। झाबरमल-तो और क्या तू समझती है कि तेरी कन्या के लिए बिरा- दरी में कोई कुमार मिल जायगा । सुशीला-मेरी लड़की क्वारी रहेगी। -झाबरमल,और रामनाथजी के नाम को कलंकित करेगी। कर पर ऐसे -