मृतक भोज थी। समाज के चक्रव्यूह से किसी तरह भी तो छुटकारा नहीं होता। लड़की के दो-एक गहने बच रहे थे। वह भी बिक गये। जब रोटियों ही के लाले थे, तो घर का किराया कहाँ से आता । तीन महीने के बाद घर का मानिक, जो उसी बिरादरी का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति था, और जिसने मृतक भोज में खूब बढ़ बढ़कर हाथ मारे थे, अधीर हो उठा । बेचारा कितना धैर्य रखता। ३०) का मामला है, रुपये-पाठ पाने की बात नहीं है। इतनी बड़ी रकम नही छोडी जाती। अाखिर एक दिन सेठजी ने आकर लाल अाखे करके कहा-अगर तू किराया नहीं दे सकती, तो घर खाली कर दे। मैंने बिरादरी के नाते इतनी मुरौवत की । अब किसी तरह काम नहीं चल सकता । सुशीला बोली-सेठजी, मेरे पास रुपए होते, तो पहले आपका किराया देकर तब पानी पीती । आपने इतनी मुरौवत की, इसके लिए मेरा सिर श्रापके चरणो पर है , लेकिन अभी मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ। यह समझ लीजिए कि एक भाई के बाल-बच्चों की परवरिस कर रहे हैं । और क्या कहूँ । सेठ-चल-चल, इस तरह की बातें बहुत सुन चुका । बिरादरी का आदमी है, तो उसे चूस लो । कोई मुसलमान होता, तो उसे चुपके से महीने महीने दे देतीं, नहीं तो उसने निकाल बाहर किया होता । मैं बिरादरी का हूँ इसलिए मुझे किराया देने की दरकार नहीं। मुझे मांगना ही नहीं चाहिए। यही तो बिरादरी के साथ करना चाहिए । इसी समय रेवती भी श्राकर खड़ी हो गई । सेठजी ने उसे सिर से पाँव तक देखा और तब किसी कारण से बोले-अच्छा, यह लड़की तो सयानी हो गई । कही इसकी सगाई की बात-चीत नहीं की? रेवती तुरत भाग गई। सुशीला ने इन शब्दों में आत्मीयता की झल पाकर पुलकित कठ से कहा- अभी तो कहीं बात-चीत नहीं हुई सेठजी । घर का किराया तक तो अदा नहीं वर सवाई छोटी भी तो है सेठजी ने तुरत शास्त्रों का आधार दिया। कन्याओं के विवाह की यही अवस्था है । धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। किराये की कोई बात नहीं २
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