पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१८५

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१८६ मानसरोवर बिन्नी ( सकुचाती हुई)-ऐसी जल्दी क्या है? पंडित-जल्दी क्यो नहीं है । जमाना हँसेगा। बिन्नी-हॅसने दीजिए । मैं यहीं आपकी सेवा करती रहूँगी। पडित-नहीं बिन्नी, मेरे लिए तुम क्यों हलकान होगी। मैं अभागा हूँ, जब तक जिंदगी है, जिऊँगा ; चाहे रोकर जिऊँ, चाहे हँसकर । हँसी मेरे भाग्य से उठ गई । तुमने इतने दिनो संभाल लिया, यही क्या कम एहसान किया ? मैं यह जानता हूँ कि तुम्हारे जाने के बाद कोई मेरी खबर लेनेवाला नहीं रहेगा, यह घर तहस-नहस हो जायगा, और मुझे घर छोड़कर भागना पड़ेगा । पर क्या किया जाय, लाचारी है । तुम्हारे बिना अब मैं यहां क्षण- भर भी नहीं रह सकता । मगला की खाली जगह तो तुमने पूरी की, करेगा। बिन्नी-क्या इस साल रुक नहीं सकता! मैं इस दशा में आपको छोड़कर न जाऊँगी। पंडित-अपने बस की बात तो नहीं ? वे लोग श्राग्रह करेगे, तो मजबूर होकर करना ही पड़ेगा। बिन्नी-बहुत जल्दी मचाये तो आप कह दीजिएगा, अब नहीं करेंगे। उन लोगों के जी मे जो पाये, करे। क्या यहाँ कोई उनका दबैल बैठा तुम्हारा स्थान कौन पूरा हुअा है ? पंडित-वे लोग तो अभी से श्राग्रह कर रहे हैं । बिन्नी-आप फटकार क्यों नहीं देते ? पंडित-करना तो है ही, फिर विलब क्यो करूँ ? यह दुःख और वियोग तो एक दिन होना ही है । अपनी विपत्ति का भार तुम्हारे सिर क्यों रखू। बिन्नी-दुःख सुख में काम न पाऊँगी, तो और किस दिन काम पाऊँगी ? ( ५ ) पंडितजी के मन मे कई दिनों तक घोर सग्राम होता रहा! वह अब बिन्नी को पिता की दृष्टि से न देख सकते थे। बिन्नो अब मगला की बहन और उनकी साली थी। ज़माना हॅसेगा, तो हँसे ; ज़िदगी तो आनद से गुजरेगी।