पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१९०

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भूत १९१ 3 श्रदर झांक रही थी ! छाया नहीं, मंगला थी.-मगला थी-सदेह, साकार, सजीव ! उसकी आँखों में क्रोध और तिरस्कार भरा हुआ था । चौबेजी कापती हुई टूटी-फूटी आवाज़ मे बोले-बिन्नी, देखो, वह क्या है ? . बिन्नी ने भी घबराकर खिड़की की ओर देखा। कुछ न था। बोलो- क्या है ? मुझे तो कुछ नहीं दिखाई देता। चौवेजी-अब गायब हो गई , लेकिन ईश्वर जानता है, मंगला थी। बिन्नी-बहन ? चौवे- हाँ, हाँ वही । खिड़की से अदर झांक रही थी। मेरे तो राएँ खड़े हो गये। विंध्येश्वरी कांपती हुई बोली-मैं यहां नहीं रहूँगी। चौवे-नहीं, नहीं, बिन्नी, कोई डर नही है, मुझे धोखा हुआ होगा। बात यह है कि वह इस घर मे रहती थी, यहीं सोती थी, इसी से कदाचित् मेरी भावना ने उसकी मूर्ति लाकर खडी कर दी। कोई बात नहीं है । अाज का दिन कितना मंगलमय है कि मेरी बिन्नी यथार्थ मे मेरी हो गई यह कहते-कहते चौवेजी फिर चौके । फिर वही मूर्ति खिड़की से झांक रही थी-मूर्ति नहीं, सदेह, सजीव, साकार मगला | अबकी उसकी आँखों में क्रोध न था, तिरस्कार न था , उनमें हास्य भरा हुआ था, मानों वह इस दृश्य पर हँस रही है -मानों उसके सामने कोई अभिनय हो रहा है। चौवेजी ने कांपते हुए कहा-बिन्नी, फिर वही बात हुई | वह देखो, मगला खड़ी है! विध्येश्वरी चीखकर उनके गले से चिमट गई। चौबेजी ने महाबीरजी का नाम जपते हुए कहा-मैं किवाड़े बद किये , . देता हूँ। बिन्नी-मैं इस घर में नहीं रहूँगी। (रोकर ) भैयाजी, तुमने बहन के अतिम आदेश को नहीं माना, इसी से उनकी आत्मा दुखी हो रही है। मुझे. तो किसी श्रमगल की आशका हो रही है। चौवेजी ने उठकर खिड़की के द्वार बद कर दिये और कहा-मै कला