सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६० मानसरोवर (७) चौबेजी के घर में मंगल-गान हो रहा था। विध्येश्वरी आज वधू बनकर इस घर में आई है । कई वर्ष पहले वह चौबेजी की पुत्री बनकर आई थी। उसने कभी स्वप्न में भी न सोचा था कि मैं एक दिन इस घर की स्वामिनी बनूंगी। चौवेजी की सज-धन आज देखने योग्य है। तनजेब का रगीन कुरता, कतरी और सॅवारी हुई मूंछे, खिजाब से चमकते हुए बाल, हँसता हुआ चेहरा, चढ़ी हुई आँखें-यौवन का पूरा स्वाग था ! रात बीत चुकी थी। विंध्येश्वरी आभूषणों से लदी हुई, भारी जोड़े पहने, फर्श पर सिर झुकाये बैठी थी। उसे कोई उत्कठा न थी, भय न था ; केवल यह संकोच था कि मैं उनके सामने कैसे मुँह खोलू गी १ उनकी गोद मे खेली हूँ ; उनके कधो पर बैठी हूँ ; उनकी पीठ पर सवार हुई हूँ, कैसे उन्हें मुंह दिखाऊँगी। -मगर वे पिछली बाते क्यों सोचूँ । ईश्वर उन्हें प्रसन्न रक्खे । जिसके लिए मैंने पुत्री से पत्नी बनना स्वीकार किया, वह पूर्ण हो । उनका जीवन आनंद से व्यतीत हो । इतने में चौबेजी आये। विंध्येश्वरी उठ खडी हुई। उसे इतनी लज्जा आई कि जी चाहा कहीं भाग जाय, खिड़की से नीचे कूद पड़े। चौबेजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले-बिन्नी, मुझसे डरती हो? बिन्नी कुछ न बोली। मूर्ति की तरह वहीं खड़ी रही । एक क्षण मे चौबेजी ने उसे बिठा दिया ; वह बैठ गई । उसका गला भर-भर आता था। भाग्य की यह निर्दय लीला, यह क्रूर क्रीड़ा, उसके लिए असह्य हो रही थी। पंडितजी ने पूछा-बिन्नी, बोलती क्यों नहीं ? क्या मुझसे नाराज़ हो ? विंध्येश्वरी ने अपने कान बद कर लिये । यही परिचित आवाज़ वह कितने दिनों से सुनती चली आती थी। आज वह व्यग्य से भी तीव्र और उपहास से भी कटु प्रतीत होती थी। सहसा पडितजी चौक पड़े; आँखे फैज्ञ गई, और दोनों हाथ मेढक के पैरों की भाति सिकुड़ गये। वह दो कदम पीछे हट गये। खिड़की से मगला .