२०० मानसरोवर . विप्र-कुछ नहीं है तुम तो हो । प्राख़िर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पडता है । सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल भी दे देना। सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो । तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड दूँ । कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने- महीने सूद देते जाओगे। और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे ! शकर-महाराज, सूद मे तो काम करूँगा और खाऊँगा क्या ? विप्र-तुम्हारी घरवाली है; लडके हैं, क्या वह हाथ-पांव कटाके बैठेगे। रहा मैं, तुम्हे अाध सेर जौ रोज़ कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। अोढने को साल में एक कबल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और क्या चाहिए । यह सच है कि और लोग तुम्हें ।) रोज़ देते हैं लेकिन मुझे ऐसी ग़रज़ नहीं है, मैं तो तुम्हें अपने रुपये भराने के लिए रखता हूँ। शकर ने कुछ देर तक गहरी चिता मे पडे रहने के बाद कहा-महा- राज, यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई ! विप्र-गुलामी समझो, चाहे मजदूरी समझो । मैं अपने रुपये भराये बिना तुम को कभी न छोडूंगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हां, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है । इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूरी जमानत कौन करता, कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता ; दूसरे दिन से उसने विप्रजी के यहाँ काम करना शुरू कर दिया । सवा रेर गेहूं की बदौलत उम्र-भर के सिए गुला" भी बेड़ी पैरो में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार खतोष होता था तो वह यह था कि यह मेरे पूर्व-जन्म का सस्कार है। को वह काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किये थे, बच्चे दानों तरसते थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था वह गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भांति यावज्जीवन उसके सिर उतरे। न
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