पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२०३

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, २०४ मानसरोवर काम कर चुका था, रात को यहां सोया न था, उसका दड! और घर बैठे भत्ते उड़ानेवालो को कोई नहीं पूछता ! कोई दड नहीं देता ? दड तो मिले, और ऐसा मिले कि जिंदगी भर याद रहे ; पर पकड़ना तो मुश्किल है । दमड़ी भी अगर होशियार होता, तो ज़रा रात रहे श्राकर कोठरी में सो जाता। फिर किसे खबर होती कि वह रात को कहीं रहा। पर गरीब इतना चंट न था। (३) दमड़ी के पास कुल छः बिस्वे जमीन थी! पर इतने ही प्राणियों का खर्च भी था । उसके दो लड़के, दो लड़कियाँ और स्त्री, सब खेती में लगे रहते थे, फिर भी पेट की रोटियां नहीं मयस्सर होती थीं। इतनी ज़मीन क्या सोना उगल देती। अगर सबके सब घर से निकलकर मज़दूरी करने लगते तो आराम से रह सकते थे ; लेकिन मौलसी किसान मज़दूर कहलाने का अप- मान न सह सकता था। इस बदनामी से बचने के लिए दो बैल बाँध रखे थे। उसके वेतन का बड़ा भाग बैलो के दाने-चारे ही में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफे मजूर थी, पर खेती छोड़ कर मजदूर बन जाना मजूर न था। किसान की जो प्रतिष्ठा है, वह कहीं मजदूर की हो सकती है ; चाहे वह रुपया रेज़ ही क्यों न कमाये ? किसानी के साथ मजदूरी करना इतने अपमान की बात नही, द्वार पर बँधे हुए बैल उसकी मान रक्षा किया करते हैं, पर बैलों को बेचकर फिर कहीं मुंह दिखलाने की जगह रह सकती है ! एक दिन राय साहब उसे सरदी से कापते देखकर बोले-कपड़े क्यों नहीं बनबाता, कांप क्यों रहा है? दमड़ी-सरकार, पेट की रोटी तो पूरी ही नहीं पड़ती कपड़े कहाँ से बनवाऊँ। राय साहब-बैलों को बेच क्यों नहीं डालता; सैकड़ों बार समझा चुका, लेकिन न जाने क्यों इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं पाती। दमड़ी-सरकार, बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने लायक न रहूँगा । लड़की की सगाई न हो पायेगी: टाट-बाहर कर दिया जाऊँगा। राय साहब-इन्हीं हिमाकतों से तुम लोगों को यह दुर्गति हो रही है। +