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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२१०

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समस्या २११ नित्य ही हुआ करती है । इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में न आता था । हो, मुझे उसपर दया अवश्य आती थी और अपने व्यवहार से मैं यह दिखाना चाहता था कि मेरी दृष्टि में उसका आदर अन्य चपरासियों से कम नहीं। यहाँ तक कि कई बार मैं उसके पीछे अन्य कर्मचारियों से लड़ भी चुका हूँ। [ २ ] एक दिन बड़े बाबू ने गरीब से अपनी मेज सफा करने को कहा। वह तुरत मेज साफ करने लगा। दैवयोग से झाडन का झटका लगा तो दावात उलट गई और रोशनाई मेज पर फैल गई । बड़े बाबू यह देखते ही जामे से बाहर हो गये । उसके दोनो कान पकड़कर खूब ऐठे और भारतवर्ष की सभी प्रचलित भाषाओं से दुर्वचन चुन-चुनकर उसे सुनाने लगे । बेचारा ग़रीब आँखो में आँसू भरे चुपचाप मूर्तिवत् खडा सुनता था, मानों उसने कोई हत्या कर डाली हो । मुझे बड़े बाबू का जरा-सी बात पर इतना भयकर रौद्र रूप धारण करना बुरा मालूम हुआ । यदि किसी दूसरे चपरासी ने इससे भी बडा कोई अपराध किया होता तो, भी उसपर इतना वज्र-प्रहार न होता। मैंने अग्रेजी में कहा-बाबू साहेब, आप यह अन्याय कर रहे हैं। उसने जान-बूझकर तो रोशनाई गिराई नहीं, इसका इतना कडा दड अनौचित्य की पराकाष्ठा है। बाबूजी ने नम्रता से कहा-आप इसे जानते नहीं, बड़ा दुष्ट है । 'मै तो उसकी कोई दुष्टता नहीं देखता ।' 'अाप अभी उसे जानते नहीं, एक ही पाजी है। इसके घर दो हलों की खेती होती है, हजारों का लेन देन करता है, कई भैसे लगती हैं। इन्हीं बातों का इसे घमड है। 'घर की ऐसी दशा होती, तो आपके यह! चपरासगिरी क्यों करता ? 'विश्वास मानिए, बड़ा पोढ़ा आदमी है और बला का मक्खीचूस ।' 'यदि ऐसा ही हो, तो भी कोई अपराध नहीं है।' 'अजी अभी आप इन बातो को नहीं जानते। कुछ दिन और रहिए तो आपको स्वय मालूम हो जायगा कि यह कितना कमीना श्रादमी है.' एक दूसरे महाशय बोल उठे-भाई साहब, इसके घर, मनों दूध-दही