पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२१२

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समस्या २१३ , 'गाये भैसे भी लगती हैं । 'हा, हजूर, दो भैंसें लगती हैं, मुदा गाये अभी गाभिन नहीं हैं । हजूर ही लोगों के दया धरम से पेट की रोटियां चली जाती हैं ।। 'दफ्तर के बाबू लोगो की भी कभी कुछ खातिर करते हो !' ग़रीब ने अत्यत दीनता से कहा-हजूर, मैं सरकार लोगों की क्या . खातिर कर सकता हूँ । खेती में जौ, चना, मक्का, जुवार के सिवाय और क्या होता है । आप लोग राजा है, यह मोटी-मोटी चीजें किस मुंह से आपकी भेट करूँ। जी डरता है, कही कोई डॉट न बैठे कि इस टके के श्रादमो की इतनी मजाल । इसी मारे बाबूजी, हियाव नहीं पडता। नहीं दूंध दही की कौन बिसात थी । मुंह लायक बीड़ा तो होना चाहिए । 'भला एक दिन कुछ लाके दो तो, देखो लोग क्या कहते हैं । शहर में यह चीजे कहाँ मयस्सर होती हैं । इन लोगो का जी कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला करता है।" 'जो सरकार कोई कुछ कहे तो ? कहीं साहब से शिकायत कर दे तो मैं कहीं का न रहूँ । 'इसका मेरा ज़िम्मा है, तुम्हें कोई कुछ न कहेगा। कोई कुछ कहेगा तो मैं समझा दूगा। 'तो हजूर अाज-कल तो मटर की फसिल है। चने के साग भी हो गये हैं और कोल्हू भी खडा हो गया है । इसके सिवाय तो और कुछ नहीं है ।' 'बस तो यही चीज़े लायो।' 'कुछ उल्टी-सीधी पडे तो हजूर ही सँभालेगे।" 'हाँ जी, कह तो दिया कि मै देख लूंगा।' दूसरे दिन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट युवक भी थे । दो के सिरों पर दो टोकरियाँ थीं, उनमे मटर की फलियां भरी हुई थीं। ८ क के सिर पर मटका था, उसमे ऊख का रस था। 'तीनों ऊख का एक-एक गट्ठर कांख मे दबाये हुए थे। गरीब आकर चुपके से बरामदे के सामने पेड के नीचे खड़ा हो गया। दफ्तर मे आने का उसे साहस नहीं होता था, मानो कोई अपराधी है। वृक्ष के नीचे खड़ा था कि इतने में दफ्तर के चपरासियों