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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२१३

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मानसरोवर और अन्य कर्मचाररियों ने उसे घेर लिया। कोई ऊख लेकर चूसने लगा, कई आदमी टोकरों पर टूट पड़े। लूट, मच गई। इतने में बड़े बाबू भी दफ्तर मे आ पहुंचे। यह कौतुक देखा तो उच्च स्वर में बोले-यह क्या भीड़- लगा रखी है, अपना-अपना काम देखो। मैंने जाकर उनके कान में कहा-गरीब अपने घर से यह सौगात लाया है । कुछ आप ले लीजिए, कुछ इन लोगों को बांट दीजिए । बड़े बाबू ने कृत्रिम क्रोध धारण करके कहा-क्यों गरीब, तुम यह चीज़ यहाँ क्यों लाये ! अभी लौटा ले जाओ, नहीं तो मैं साहब से रपट कर दूंगा। कोई हम लोगों को मलूका समझ लिया है ! गरीब का रंग उड़ गया ! थर-थर कांपने लगा । मुँह से एक शब्द भी न निकला । मेरी श्रोर अपराधी नेत्रों से ताकने लगा। मैंने उसकी ओर से क्षमा-प्रार्थना की। बहुत कहने-सुनने पर बाबू साहब राजी हुए। सब चीज़ो में से आधी-आधी अपने घर भिजवाई। आधी मे अन्य लोगों के हिस्से लगाये गये । इस प्रकार यह अभिनय समाप्त हुआ। [ ४ ] अब दफ्तर में ग़रीब का मान होने लगा। उसे नित्य घुड़कियां न मिलती, दिन-भर दौड़ना न पड़ता, कर्मचारियों के व्यग्य और अपने सहवर्गियों के कटुवाक्य न सुनने पड़ते। चपरासी लोग स्वयं उसका काम कर देते। उसके नाम में भी थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ। वह ग़रीब से गरीबदास बना । स्वभाव में भी कुछ तबदीली पैदा हुई। दीनता की जगह आत्मगौरव का उद्भव हुआ। तत्परता की जगह आलस्य ने ली। वह अब कभी देर करके दफ्तर आता, कभी-कभी बीमारी का बहाना करके घर बैठा रहता। उसके सभी अपराध अब क्षम्य थे। उसे अपनी प्रतिष्ठा का गुर हाथ लग गया था। वह अब दसवे-पाचवे दूध, दही आदि लाकर बड़े बाबू की भेट किया करते। देवता को संतुष्ट करना सीख गया। सरलता के बदले अब उसमें काइथापन गया। एक रोज़ बड़े बाबू ने उसे सरकारी फार्मो का पार्सल छुड़ाने के लिए स्टेशन भेजा । कई बड़े बड़े पुलिंदे ये। ठेले पर आये। गरीब ने ठेलेवालों