पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२२४

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दो सखियाँ २२३ सामान जमा किया था। वह सब ख़राब हो गया। घर में जिसे देखिए, मेरी ससुराल की निंदा कर रहा है-उजड्ड हैं, लोभी हैं, बदमाश हैं। मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लगता। लेकिन पति के विरुद्ध मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती । एक दिन अम्माजी बोली-लड़का भी बेसमझ है। दूध-पीता बच्चा नहीं, कानून पढ़ता है, मुछ-दाढी आ गई है, उसे अपने बाप को समझाना चाहिए था कि आप लोग क्या कर रहे हैं। मगर वह भी भोंगी बिल्ली बना रहा । मैं सुनकर तिलमिला उठी। कुछ बोली तो नहीं, पर अस्माजी को मालूम जरूर हो गया कि इस विषय में मैं उनसे सहमत नहीं। मैं तुम्हीं से पूछती हूँ बहन, जैसी समस्या उठ खड़ी हुई थी, उसमें उनका क्या धर्म था ? अगर वह अपने पिता और अन्य सबधियों का कहना न मानते, तो उनका अपमान न होता ? उस वक्त उन्होंने वही किया, जो उचित था। मगर मुझे विश्वास है कि जरा मामला ठडा होने पर वह पायेगे। मैं अभी से उनकी राह देखने लगी हूँ। डाकिया चिट्ठियां लाता है, तो दिल में धड़कन होने लगती है-शायद उनका पत्र भी हो ! जी मे बार-बार आता है, क्यों न मैं ही एक ख़त लिखू ; मगर सकोच में पडकर रह जाती हूँ। शायद मैं कभी न लिख सकेंगी। मान नहीं है, केवल सकोच है, पर हाँ, अगर दस- पाँच दिन और उनका पत्र न पाया, या वह खुद न आये, तो सकोच मान का रूप धारण कर लेगा। क्या तुम उन्हें एक चिट्ठी नहीं लिख सकती १ सत्र खेल बन जाय । क्या मेरी इतनी ख़ातिर भी न करोगी? मगर ईश्वर के लिए उस ख़त मे कहीं यह न लिख देना कि चदा ने प्ररणा की है। क्षमा करना, ऐसी भद्दी गलती की तुम्हारी ओर से शका करके मै तुम्हारे साथ अन्याय कर रही हूँ, मगर मैं समझदार थी ही का ? तुम्हारी चदा मंसूरी २०-६-२५ यारी चन्दा । मैंने तुम्हारा ख़त पाने के दूसरे ही दिन काशी ख़त लिख दिया था। उसका जवाब भी मिल गया। शायद बाबूजी ने तुम्हें ख़त लिखा