दो सखियाँ १२३२ 3 हल करती हूँ, पर नहीं जानती जबाब ठीक निकला, या ग़लत । सोचो, मेरे चित्त की क्या दशा होगी। एक हप्ता होता है, लखनऊ की मिस रिग से भेट हो गई। यह लेडी डॉक्टर हैं और मेरे घर बहुत आती जाती हैं। किसी का सिर भी धमका और मिस रिग बुलाई गई। पापा जब मेडिकल कालेज में प्रोफेसर थे, तो उन्होने इन मिट रिंग को पढ़ाया था। उसका एहसान वह अब तक मानती हैं। यहां उन्हें देखकर भोजन का निमत्रण न देना अशिष्टता की हद होती। मिस रिंग ने दावत मजूर कर ली। उस दिन मुझे जितनी कठिनाई हुई वह बयान नहीं कर सकती। मैंने कभी अँगरेज़ों के साथ टेबुल पर नहीं खाया। उनमें भोजन के क्या शिष्टाचार हैं, इसका मुझे बिल कुज ज्ञान नहीं। मैंने समझा था, विनोद मुझे सारी बातें बता देगे। वहबरसों अँगरेज़ों के साथ इंगलैंड रह चुके हैं । मैंने उन्हें मिस रिंग के आने की सूचना भी दे दो। पर उस भले आदमी ने मानो सुना ही नहीं। मैंने भी निश्चय किया, मै तुमसे कुछ न पूलूंगी, यही न होगा, मिस रिग हँसेगी। बला से । अपने ऊपर बार- बार मुझलाती थी कि कहाँ से मिस रिंग को बुना बैठी। पड़ोस के बँगलों में कई हमी जैसे परिवार रहते हैं। उनसे सलाह ले सकती थी। पर यही संकोच होता था कि ये लोग मुझे गॅवारिन समझेगे। अपनी इस विवशता पर थोड़ी देर तक आँसू भी बहाती रही। आखिर निराश होकर अपनी बुद्धि से काम लिया । दूसरे दिन मिस रिंग आई। हम दोनों भी मेज़ पर बैठे । दावत शुरू हुई। मैं देखती थी कि विनोद बार-बार झरते थे और मिस रिंग बार-बार नाक सिकोड़ती थीं, जिससे प्रकट हो रहा था कि शिष्टाचार की मर्यादा भंग हो रही है । मैं शर्म के मारे मरी जाती थी। बारे किसी भीति विपत्ति सिर से टली । तब मैंने कान पकड़े कि अब किसी अगरेज की दावत न करूंगी। उस दिन से देख रही हूँ, विनोद मुझसे कुछ खिंचे हुए हैं। मैं भी नहीं बोल रही हूँ। वह शायद समझते हैं कि मैंने उनकी भद्द करा दी। मैं समझ रही हूँ कि उन्होंने मुझे लज्जित किया। सच कहती हूँ चदा, गृहस्थी के इन झझटों में मुझे अब किसी से हंसने-बोलने का अवसर नहीं मिलता। इधर महीनों से कोई नई पुस्तक नही पढ़ सकी। विनोद की विनोद-शीलता भी न जाने कहाँ
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३०
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