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श्राई। मानसरोवर चाहूँ करूँ, उनसे कोई मतलब नहीं। वह मेरे मेहमान हैं । 'गृहस्थी का सारा बोझ मुझपर डालकर वह निश्चित हो गये हैं। ऐसा वेफिका मैंने आदमी ही नहीं देखा । हाज़िरी की परवाह है, न डिनर की, बुलाया तो आ गये, नहीं तो बैठे हैं । नौकरों से कुछ बोलने की तो मानो इन्होंने कसम ही खा ली है। उन्हें डाटू तो मैं, रखू तो मैं, निकालू तो मैं, उनसे कोई मतलब ही नहीं । मैं चाहती हूँ, वह मेरे प्रबंध की आलोचना करें, ऐब निकाले ; मैं चाहती हूँ, 'जब मैं बाज़ार से कोई चीज़ लाऊँ, तो वह बतावे कि मैं जट गई या जीत मैं चाहती हूँ महीने के ख़र्च का बजट बनाते समय मेरे और उनके बीच में खूब बहस हो, पर इन अरमानों में से एक भी पूरा नहीं होता। मैं नहीं समझती इस तरह कोई स्त्री कहाँ तक गृह-प्रबंध में सफल हो सकती है। विनोद के इस संपूर्ण आत्म-समर्पण ने मेरी निज की ज़रूरतों के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रखी। अपने शौक की चीज़ खुद ख़रीदकर लाते बुरा मालूम होता है, कम-से-कम मुझसे नहीं हो सकता; मैं जानती हूँ, मैं अपने लिए कोई चीज़ लाऊँ, तो वह नाराज़ न होगे। नहीं मुझे विश्वास है, खुश होंगे, लेकिन मेरा जी चाहता है, मेरे शौक-सिंगार की चीज़े वह खुद लाकर दे, उनसे लेने में जो आनंद है, वह खुद जाकर लाने में नहीं। पिताजी अब भी मुझे १०१) महीना देते हैं और उन रुपयो को मैं अपनी ज़रूरतों पर खर्च कर सकती हूँ। पर न जाने क्यो मुझे भय होता है कि कहीं विनोद समझे, मैं उनके रुपये खर्च किये डालती हूँ। जो आदमी किसी बात पर नाराज नहीं हो सकता वह किसी बात पर खुश भी नहीं हो सकता। मेरी समझ ही में नहीं आता, वह किस बात से खुश और किस बात से नाराज़ होते हैं । बस, मेरी दशा उस आदमी की-सी है, जो बिना रास्ता जाने इधर- उधर भटकता फिरे । तुम्हें याद होगा, हम दोनों कोई गणित का प्रश्न लगाने के बाद कितनी उत्सुकता से उसका जवाब देखती थीं। जब हमारा जवाब किताब के जवाब से मिल जाता था, तो हमें कितना हार्दिक श्रानंद मिलता था। मेहनत सफल हुई, इसका विश्वास हो जाता था। जिन गणित की पुस्तकों में प्रश्नों के उत्तर न लिखे होते थे, उनके प्रश्न हल करने की हमारी २ इच्छा ही न होती थी। सोचते थे, मेहनत अकारथ जायगी। मै रोज़ प्रश्न ~