पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४३

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२४४ मानसरोवर हैं, मुझे भी स्वाधीन छोड़ देना चाहते हैं। वह मेरे किसी काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते। इसी तरह चाहते हैं कि मैं भी उनके - किसी काम में हस्तक्षेप न करूं। मैं इस स्वाधीनता को दोनों ही के लिए विष तुल्य समझती हूँ। संसार में स्वाधीनता का चाहे जो मूल्य हो, घर में तो पराधीनता ही फूलती-फलती है। मैं जिस तरह अपने एक ज़ेबर को अपना समझती हूँ, उसी हरह विनोद को भी अपना समझना चाहती हूँ। अगर मुझसे पूछे बिना विनोद उसे किसी को दे दें, तो मैं लड़ पड़ेगी। मैं चाहती हूँ, इसी तरह उनपर मेरा अधिकार हो। अपने ऊपर भी उनका ऐसा ही अधिकार चाहती हूँ। उन्हें मेरी एक-एक बात पर ध्यान देना चाहिए । मैं किससे मिलती हूँ, कहाँ जाती हूँ, क्या पढ़ती हूँ, किस तरह जीवन व्यतीत करती हूँ, इन सारी बातों पर उनकी तीव्र दृष्टि रहनी चाहिए। जब वह मेरी परवा नहीं करते, तो मैं उनकी परवा क्यों करूँ। इस खींचातानी मे हम एक दूसरे से अलग होते चले जा रहे हैं। और क्या कहूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम कि वह किन मित्रों को रोज़ पत्र लिखते हैं। उन्होंने भी मुझसे कभी कुछ नहीं पूछा। खैर, मैं क्या लिख रही थी, क्या कहने लगी। विनोद ने मुझसे कुछ नहीं पूछा । मैं फिर भुवन से फिल्म के सबंध में नाते करने लगी। जब खेल ख़त्म हो गया और हम लोग बाहर आये और तांगा ठीक करने लगे, तो भुवन ने कहा- 'मैं अपनी कार में आपको पहुँचा दूंगा।' हमने कोई आपत्ति नहीं की। हमारे मकान का पता पूछकर भुवन ने कार चला दी। रास्ते में मैंने भुवन से कहा-'कल मेरे यहाँ दोपहर का खाना खाइएगा ।' भुवन ने स्वीकार कर लिया। भुवन तो हमें पहुंचाकर चले गये, पर मेरा मन बड़ी देर तक उन्हीं की तरफ़ लगा रहा। इन दो-तीन घंटों मे भुवन को जितना समझी उतना विनोद को आजतक नहीं समझी। मैंने भी अपने हृदय की जितनी बाते उससे कह दी, उतनी विनोद से आजतक नहीं कहीं। भुवन उन मनुष्यों मे है जो किसी पर-पुरुष को मेरी ओर कुदृष्टि डालते देखकर उसे मार डालेगा। उसी तरह मुझे किसी पुरुष से हँसते देखकर मेरा खून पी लेगा ओर जरूरत पड़ेगी, तो मेरे लिए 'भाग में कूद पड़ेगा। ऐसा ही पुरुष-चरित्र मेरे हृदय पर