पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४८

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दो सखियाँ 'अच्छा तो मैं कल आऊँगा । शायद महाराजा साहब भी आवें ।' 'नहीं, आप लोग मेरे बुलाने का इंतज़ार कीजिएगा। बिना बुलाए नाइएगा। यह कहती हुई मैं उठकर अपने सोने के कमरे की ओर चली । भुवन एक क्षण मेरी ओर देखता रहा, फिर चुपके से चला गया । बहन, इसे दो दिन हो गये हैं । पर मै कमरे से बाहर नहीं निकली । भुवन दो-तीन बार आ चुका है, मगर मैंने उससे मिलने से साफ इनकार कर दिया। अब शायद उसे फिर आने का साहस न होगा। ईश्वर ने बड़े नाजुक मौके पर मुझे सुबुद्धि प्रदान की, नहीं मैं अब तक अपना सर्वनाश कर बैठी होती । विनोद प्रायः मेरे ही पास बैठे रहते हैं । लेकिन उनसे बोलने को मेरा जी नहीं चाहता। जो पुरुष व्यभिचार का दार्शनिक सिद्धातों से समर्थन कर सकता है, जिसकी आँखों में विवाह जैसे पवित्र बधन का कोई मूल्य नहीं, जो न मेरा हो सकता है न मुझे अपना बना सकता है उसके साथ मुझ जैसी मानिनी गर्विणी स्त्री का कै दिन निर्वाह होगा! बस, अब बिदा होती हूँ बहन । क्षमा करना । मैंने तुम्हारा बहुत-सा अमूल्य समय ले लिया। मगर इतना समझ लो कि मैं तुम्हारी दया नहीं, सहानुभूति चाहती हूँ। तुम्हारी पद्मा (१०) काशी ५-१-२६ बहन, तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई उपन्यास पढ़- कर उठी हूँ। अगर तुम उपन्यास लिखो, तो मुझे विश्वास है, उसकी धूम मच जाय । तुम श्राप उसकी नायिका बन जाना। तुम ऐसी ऐसी बाते कहाँ सीख गई, मुझे तो यही आश्चर्य है । उस बंगाली के साथ तुम अकेली कैसे बैठी बातें करती रहीं, मेरी तो समझ में नीं आता । मैं तो कभी न कर सकती। तुम विनोद को जलाना चाहती हो, उनके चित्त को अशात करना चाहती 2