पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२५२

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दो सखियाँ २५३ अनधिकार चेष्टा कर रहे हो। जैसे मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए कोई श्रादमी उज्ज्वल वस्त्र पहननेवालों से दूर ही रहना चाहता है, वही दशा इनकी है। वह शायद समझते हैं कि किसी रूपवती स्त्री को रूपहीन पुरुष से प्रेम हो ही नहीं सकता । शायद वह दिल मे पछाताते हैं कि क्यों इससे विवाह किया। शायद उन्हें अपने ऊपर ग्लानि होती है। वह मुझे कभी रोते देख लेते हैं, तो समझते हैं मैं अपने भाग्य को रो रही हूँ, कोई पत्र लिखते देखते हैं, तो समझते हैं, मै इनकी रूपहीनता ही का रोना रो रही हूँ। क्या कहूँ बहन, यह सौंदर्य मेरी जान का गाहक हो गया। आनद के मन से इस शंका को निकालने और उन्हें अपनी ओर से आश्वासन देने के लिए मुझे ऐसी-ऐसी बाते करनी पड़ती हैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पड़ते हैं, जिन पर मुझे घृणा होती है। अगर पहले से यह दशा जानती, तो ब्रह्मा से कहती मुझे कुरूपा ही बनाना । बड़े असमंजस में पड़ी हूँ। अगर सासजी की सेवा नहीं करती, बड़ी ननदजी का मन नहीं रखती तो उनकी आँखों से गिरती हूँ। अगर अानद बाबू को निराश करती हूँ तो कदाचित् मुझसे विरक्त ही हो जायें । मैं तुमसे अपने हृदय की बात कहती हूँ। बहन, तुमसे क्या पर्दा रखना है, मुझे मानद बाबू से उतना ही प्रेम है, जो किसी स्त्री को पुरुष से हो सकता है, उनकी जगह अब अगर इद्र भी सामने आ जाय, तो मैं उनकी ओर आँख उठाकर न देखू । मगर उन्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ ? मैं देखती हूँ, वह किसी न किसी बहाने से बार बार घर मे आते हैं और दबी हुई, ललचाई हुई नजरो से मेरे कमरे के द्वार की ओर देखते हैं, तो जी चाहता है जाकर उनका हाथ पकड़ लूं और अपने कमरे मे खींच ले पाऊँ, मगर एक तो डर होता हैं कि किसी की आँख पड़ गई, तो छाती पीटने लगेगी, और इससे भी बड़ा डर यह कि कहीं आनद इसे भी कौशल ही न समझ बैठे। अभी उनकी आमदनी बहुत कम है, लेकिन दो-चार रुपए सौगातों मे रोज उड़ाते हैं । अगर प्रमोपहार- स्वरूप वह धेले की कोई चीज़ दे तो मैं उसे श्राखों से लगाऊँ, लेकिन वह कर-स्वरूप देते हैं, मानो उन्हें ईश्वर ने यह दड दिया है । क्या करूँ अव मुझे भी प्रेम का स्वांग करना पडेगा। प्रम-प्रदर्शन से मुझे चिद है। तुम्हें याद होगा, मैंने एक बार कहा था कि प्रेम या तो भीतर ही रहेगा या बाहर