२६४ मानसरोवर तुमने तो मुझे उससे कहीं बदतर समझा-क्या अब भी पेट नहीं भरा ! तुमने मुझे इतनी गई गुजरी समझ लिया कि इस अभागे भुवन...मै ऐसे-ऐसे एक लाख भुवनो को तुम्हारे चरयो पर भेट कर सकती हूँ। मुझे तो संसार मे ऐसा कोई प्राणी ही नहीं नजर अाता, जिसपर मेरी निगाह उठ सके । नहीं तुम मुझे इतनी नीच, इतनी कलकिनी नहीं समझ सकते-शायद वह नौबत आती, तो तुम और मै दो मे से एक भी इस ससार मे न होता । बहन, मैंने विनोद को बुलाने की, खींच लाने की, पकड़ मॅगाने की एक तरकीब सोची है। क्या कहूँ, पहले ही दिन यह तरकीब क्यो न सूझी । विनोद को दैनिक पत्र पढ़े बिना चैन नहीं पाता और वह कौन सा पत्र पढ़ते हैं, मै यह भी जानती हूँ | कल के पत्र मे यह खबर छपेगी, 'पना मर रही है और परसों विनोद यहाँ होगे-रुक नहीं सकते । फिर खूब झगड़े होंगे, खूब लड़ाइयाँ होंगी। अब कुछ तुम्हारे विषय में । क्या तुम्हारी बुढ़िया सचमुच तुमसे इसलिए जलती है कि तुम सुंदरी हो, शिक्षित हो, खूब ! और तुम्हारे श्रानंद भी विचित्र जीव मालूम होते हैं । मैंने तो सुना है कि पुरुष कितना ही कुरूप हो, पर उसकी निगाह अप्सरानो ही पर जाकर पड़ती है। फिर आनद बाबू तुमसे क्यों बिचकते हैं । जरा गौर से देखना, कहीं राधा और कृष्ण के बीच में कोई कुब्जा तो नही । अगर सासजी यों ही नाक में दम करती रहे, तो मैं तो यही सलाह दूंगी कि अपनी झोपड़ी अलग बना लो । मगर जानती हूँ, तुम मेरी यह सलाह न मानोगी, किसी तरह न मानोगी। इस सहिष्णुता के लिए मैं तुम्हें बधाई देती हूँ। पत्र जल्द लिखना । मगर शायद तुम्हारा पत्र पाने के पहले ही मेरा दूसरा पत्र पहुंचे। तुम्हारी-पद्मा ( १२ ) काशी १०-२२६ प्रिय पद्मा, कई दिन तक तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करने के बाद श्राज यह खत लिख रही हूँ। मैं अब भी अाशा कर रही हूँ कि विनोद बाबू घर आ 1
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