पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२७४

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दो सखियाँ २७५ न मले तो क्या। मैं न जानता था कि तुम यह अनशन व्रत ले लोगी, नहीं ईश्वर जानता है, अम्मा मार-मारकर भगाती, तो भो न जाता ।' मैने तिररकार की दृष्टि से देखकर कहा-तो क्या सचमुच तुम समझे थे कि मैं यहां केवल आराम के विचार से रह गई ? आनद ने जल्दी से अपनी भूल सुधारी-नहीं, नहीं प्रिये, मैं इतना गधा नहीं हूँ, पर यह मैं कदापि न समझता था कि तुम रिल कुल दाना-पानी छोड़ दोगी। बड़ी कुशल हुई कि मुझे महराज मिल गया, नहीं तो तुम प्राण ही दे देतीं। अब ऐसी भूल कभी न होगी। कान पकड़ता हूँ। अम्माजी तुम्हारा बखान कर-करके रोती रहीं। मैंने प्रसन्न होकर कहा-तब तो मेरी तपस्या सुफज हो गई। 'थोड़ा-सा दूध पी लो, तो बाते हों । जाने कितनी बाते करनी हैं ।' 'पी लूंगी, ऐसी क्या जल्दी है।' 'जब तक तुम कुछ खा न लोगी, मैं यही समदूंगा कि तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया । 'मैं भोजन जभी करूँगी, जब तुम यह प्रतिज्ञा करो कि फिर कभी इस तरह रूठकर न जाओगे।' 'मैं सच्चे दिल से यह प्रतिज्ञा करता हूँ।' बहन, तीन दिन कष्ट तो हुआ, पर मुझे उसके लिए जरा भी पछतारा नहीं है । इन तीन दिनों के अनशन ने दिलों में जो सफाई कर दी, वह किसी दूसरी विधि से कदापि न होती । अब मुझे विश्वास है कि हमारा जीवन शाति से व्यतीत होगा। अपने समाचार शीघ्र, अति शीघ्र लिखना । तुम्हारी चंदा ( १३ ) देहलो २०-२-२६ पारी, बहन, तुम्हारा पत्र पढकर मुझे तुम्हारे ऊरर दया आई। तुम सुझ कितना ही बुरा कहो, पर मै अपनी यह दुर्गति किसी तरह न सह सकती,