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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२७७

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२७८ मानसरोवर मन बहुत क्षुब्ध हो उठा । कुसुम पर क्रोध आने लगा । अवश्य दोनों में बहुत दिनों से पत्र-व्यवहार होता रहा होगा। मैंने फिर कुसुम का पत्र पढ़ा और अबकी उसके प्रत्येक शब्द में मेरे लिए कुछ सोचने की सामग्री रखी हुई थी। निश्चय किया कि कुसुम को एक पत्र लिखकर खूब कोसू । अाधा पत्र लिख भी डाला, पर उसे फोड़ डाला, उसी वक्त विनोद को एक पत्र लिखा । तुमसे कभी भेट होगी, तो वह पत्र दिखलाऊँगी, जो कुछ मुँह ने श्राया बक डाला। लेकिन इस पत्र की भी वही दशा हुई जो कुसुम के पत्र की हुई थी। लिखने के बाद मालूम हुआ कि वह किसी विक्षिप्त हृदय की बकवाद है। मेरे मन मे यही बात बैठती जाती थी कि वह कुसुम के पास हैं । वही छलिनी उनपर अपना जादू चला रही है। यह दिन भी बीत गया। डाकिया कई बार अाया, पर मैंने उसकी ओर आँख भी नहीं उठाई । चदा, मै नहीं कह सकती, मेरा हृदय कितना तिलमिला रहा था। अगर कुसुम इस समय मुझे मिल जाती, तो मैं न जाने क्या कर डालती। रात को लेटे-लेटे ख़याल आया, कहीं वह योरप न चले गये हों । जी वेचैन हो उठा । सिर में ऐसा चक्कर थाने लगा, मानों पानी में डूबी जाती हूँ। अगर वह योरप चले गये, तो फिर कोई श्राशा नहीं-मैं उसी वक्त उठी और घड़ी पर नजर डाली। दो बजे थे। नौकर को जगाया और तार-घर जा पहुंची । बाबूजी कुरसी पर लेटे-लेटे सो रहे थे। बड़ी मुश्किल से उनकी नींद खुली। मैंने रसीदी तार दिया । जब बाबूजी तार दे चुके, तो मैंने पूछा- इसका जवाब कब तक आयेगा बाबू ने कहा-यह प्रश्न किसी ज्योतिषो से कीजिए । कौन जानता है, वह कब जवाब दें। तार का चपरासी जबरदस्ती तो उनसे जवाब नहीं लिखा सकता। अगर कोई और कारण न हो, तो ८-९ बजे तक जवाब भा जाना चाहिए। घबराहट में आदमी की बुद्धि पलायन कर जाती है। ऐसा निरर्थक प्रश्न करके मैं स्वयं लज्जित हो गई । बाबूजी ने अपने मन में मुझे कितना मूर्ख समझा होगा; खैर मैं वहीं एक बेंच पर बैठ गई, और तुम्हें विश्वास न श्रायेगा, नौ बजे तक वहीं बैठी रही। सोचो कितने घटे हुए। पूरे सात .