पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२७८

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कहा- दो सखियाँ २७९ घटे । सैकड़ों आदमी आये और गये, पर मैं वहाँ जमी बैठी रही। जब तार का डमी खटकता, मेरे हृदय में धड़कन होने लगती। लेकिन इस भय से कि बाबूजी झल्ला न उठे, कुछ पूछने का साहस-न करती थी। जब दफ्तर की घड़ी में नौ बजे, तो मैंने डरते-डरते बाबू से पूछा-क्या अभी तक जवाब नहीं पाया ? बाबू -~-पाप तो यहीं बैठी हैं, जबाब श्राता तो क्या मैं खा डालता। मैंने बेहयाई,करके फिर पूछा-तो क्या अब न आवेगा ? बाबू ने मुंह फेरकर कहा-और दो-चार घटे बैठी रहिए । बहन, यह वाग्वाण शर के समान हृदय में लगा। आँखें भर आई। लेकिन फिर भी मैं वहाँ से टली नहीं। अब भी आशा बॅधी हुई थी कि शायद जवाब आता हो। जब दो घंटे और गुज़र गये, तब मैं निराश हो गई। हाय ! विनोद ने मुझे कहों का न रखा । मैं घर चली, तो आँखों से आंसुत्रा की झड़ी लगी हुई थी। रास्ता सूझता था। सहसा पीछे से एक मोटर का हाने सुनाई दिया। मैं रास्ते से हट गई। उस वक मन में श्राया, इसी मोटर के नीचे लेट जाऊँ और जीवन का अंत कर हूँ। मैंने अखें पोंछकर माटर की ओर देखा, भुवन बैठा हुआ था, और उसकी बरान मे बैठी हुई थी कुसुम ! ऐसा जान पड़ा, मानों अमि की ज्वाला मेरे पैरों से समाकर सिर से निकल गई। मैं उन दोनों की निगाहों से बचना चाहती थी, लेकिन मोटर रुक गई और कुसुम उतरकर मेरे गले से लिपट गई। भुवन चुपचाप मोटर में बैठा रहा, मानों मुझे जानता ही नहीं । निदयो, धूर्त कुसुम ने पूछा-मैं तो तुम्हारे पास जातो थी बहन | वहाँ से कोई ख़बर श्राई ? मैंने बात टालने के लिए कहा-तुम कब आई ? भुवन के सामने मैं अपनी विपत्ति-कथा न कहना चाहती थी। कुसुम-प्राश्रो कार में बैठ जानो। 'नहीं मैं चली जाऊँगी । अवकाश मिले, तो एक बार चली आना।' कुसुम ने मुझसे श्राग्रह न किया। कार में बैठकर चल दी। मैं खड़ी ताकती रह गई। यह वही कुसुम है या कोई और ! कितना बड़ा अतर हो गया है?