पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९२

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, मॉगे की घड़ी २९३ के पास जाकर रोता। मुझे विश्वास था कि आज क्रोध में उन्होंने चाहे कितनी ही निष्ठुरता दिखाई हो, लेकिन दो-चार दिन के बाद जब उनका क्रोध शांत हो जाय और मैं जाकर उनके सामने रोने लगू, तो उन्हें अवश्य दया आ जायगी। बचपन की मित्रता हृदय से नहीं निकल सकती। लेकिन मैं इतना आत्मगौरव शून्य न था और न हो सकता था। मैं दूसरे ही दिन एक सस्ते होटल मे उठ गया । यहाँ १२) मे ही प्रबंध हो गया। सुबह को दूध और चाय से नाश्ता करता था। अब छोक-भर चनो पर बसर होने लगी। १२) तो यो बचे । पान, सिगरेट श्रादि की मद मे ३) और कम किये। और महीने के अत में साफ १५) बचा लिये । यह विकट तपस्या थी। इंद्रियो का निर्दय दमन ही नहीं, पूरा सन्यास था। पर जब मैंने ये १५) ले जाकर दान बाबू के हाथ में रक्खे, तो ऐसा जान पड़ा, मानों मेरा मस्तक ऊँचा हो गया है। ऐसे गौरव-पूर्ण आनद का अनुभव मुझे जीवन में कभी न हुआ था। दानू बाबू ने सहृदयता के स्वर में कहा-'बवाये या किसी से मांग लाचे 'बचाया है भई, मांगता किससे ? 'कोई तकलीफ तो नहीं हुई। 'कुछ नहीं। अगर कुछ तकलीफ हुई भी, तो इस वक्त भूल गई ।' 'सुबह को तो अब भी खाली रहते हो १ आमदनी कुछ और बढ़ाने की फिक्र क्यों नहीं करते। 'चाहता तो हूँ कि कोई काम मिल जाय, तो कर लू पर मिलता ही नहीं।' यहां से लौटा, तो मुझे अपने हृदय मे एक नवीन बल, एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था। अब तक जिन इच्छाप्रो को रोकना कष्टप्रद जान पड़ता था, अब उनकी ओर ध्यान भी न जाता था। जिस पान की दूकान को देखकर चित्त अधीर हो जाता था, उसके सामने से मैं सिर उठाये निकल जाता था, मानों अब मैं उस सतह से कुछ ऊँचा उठ गया हूँ। सिंग- रेट, चाय और चाट अब इनमे से किसी पर भी वित्त आकर्षित न हो ता था। प्रातःकाल भीगे हुए चने, दोनों जून रोटी और दाल । बस, इसके सिवा मेरे १६