पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३१४

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स्मृति का पुजारी ३१५ गया। अब तो मैं उसी प्रतिमा का उपासक हूँ, जो मेरे हृदय में है । किसी हमदर्द की सूरत देखता हूँ, तो निहाल हो जाता हूँ और अपनी दुःख-कथा सुनाने दौड़ता हूँ। यह मेरी दुर्बलता है, यह जानता हूँ। मेरे सभी मित्र इसी कारण मुझसे भागते हैं, यह भी जानता हूँ, लेकिन क्या करूँ भैया, किसी- न-किसी को दिल की लगी सुनाये बगैर मुझसे नहीं रहा जाता । ऐसा मालूम होता है, मेरा दम घुट जायगा। इसी लिए जब मिस इंदिरा की मुझपर दया दृष्टि हुई, तो मैंने इसे दैवी अनुरोध समझा और उस धुन में -जिसे मेरे मित्रवर्ग दुर्भाग्यवश उन्माद समझते हैं वह सब कुछ कह गया, जो मेरे मन में था, और है और मरते दम तक रहेगा । उन शुभ दिनों की याद कैसे भुला दूं। मेरे लिए तो वह अतीत वर्तमान से भी ज्यादा सजीव और प्रत्यक्ष है । मैं तो अब भी उसी अतीत में रहता हूँ । मिस इदिरा को मुझपर दया श्रा गई। एक दिन उन्होंने मेरी दावत की और कई स्वादिष्ट खाने अपने हाथ से बनाकर खिलाये । दूसरे दिन मेरे घर आई और यहाँ की सारी चीज़ों को व्यवस्थित रूप से सजा गई। तीसरे दिन कुछ कपड़े लाई और मेरे लिए खुद एक सूट तैयार किया ! इस क ना मे बड़ी चतुर हैं ! एक दिन शाम को कुइस पार्क में मुझसे बोलीं-बाप अपनी शादी क्यों नही कर लेते मैंने हँसकर कहा-इस उम्न में अब क्या शादी करूँगा इदिरा ! दुनिया क्या कहेगी! मिस इ दिरा बोली-आपकी उम्न अभी ऐसी क्या है। पान चालीस से ज़्यादा नहीं मालूम होते। मैंने उसकी भूल सुधारी--मेरा पचासवा साल है। उन्होंने मुझे प्रोत्साहन देकर कहा-उम्न का हिसाब साल से नहीं होता महाशय, सेहत से होता है। आपकी सेहत बहुत अच्छी है । कोई आपको पान की तरह फेरनेवाला चाहिए। किसी युवती के प्रेम-पाश में फंस जाइए, फिर देखिए, यह नीरसता कहां गायब हो जाती है। मेरा दिल धड़-धड़ करने लगा। मैंने देखा, मिस इदिरा के गोरे मुख- मडल पर हल्की-सी लाली दौड़ गई है। उनकी आँखें शर्म से झुक गई हैं