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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३१३

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मानसरोवर बार-बार उनके होठों तक आकर लौट जाती है। आखिर अखि उठाई और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं-अगर आप समझते हों कि मैं आपकी कुछ सेवा कर सकती हूँ, तो मैं हर तरह हाजिर हूँ, मुझे आपसे जो भक्ति और प्रम है, वह इसी रूप में चरितार्थ हो सकता है। मैंने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया और कांपते हुए स्वर में बोला-मैं तुम्हारी इस कृपा का कहाँ तक धन्यवाद दूं मिस इदिरा; मगर मुझे खेद है कि मैं सजीव मनुष्य नहीं, केवल मधुर स्मृतियों का पुतला हूँ। मैं उस देवी की स्मति को, अपनी लिप्सा और तुम्हारी सहानुभूति को अपनी श्रासक्ति से भ्रष्ट नहीं करना चाहता। मैंने इसके बाद बहुत-सी चिकनी-चुपड़ी बाते की, लेकिन वह जब तक यहाँ रहीं, मुंह से कुछ न बोलीं । जाते समय भी उनकी भवें तनी हुई थीं। मैंने अपने आंसुओं से उनकी ज्वाला को शांत करना चाहा, लेकिन कुछ असर न हुआ। तबसे वह नज़र नहीं आई। न मुझे ही हिम्मत पड़ी कि उनकी तलाश करता, हालांकि चलती बार उन्होंने मुझसे कहा था--जब आपको कोई कष्ट हो और आप मेरी ज़रूरत समझे, तो मुझे बुला लीजिएगा। होरीलाल ने अपनी कथा सम त करके मेरी ओर ऐसी खिों से देखा, जो चाहती थीं कि मै उनके व्रत और सतोष की प्रशसा करूँ, मगर मैंने उनकी भर्त्सना की-कितने बदनसीब हो तुम होरीलाल, मुझे तुम्हारे ऊपर दया भी आती है और क्रोध भी ! अभागे, तेरी जिंदगी सॅवर जाती। वह स्त्री नहीं थी, ईश्वर की भेजी कोई देवी थी, जो तेरे अंधेरे जीवन को अपनी मधुर ज्योति से आलोकित करने के लिए आई थी, तूने स्वर्ण का-सा अवसर हाथ से खो दिया। होरीलाल ने दीवार पर लटके हुए अपनी पत्नी के चित्र की ओर देखा और प्रम-पुलकित स्वर में बोले -मैं तो उसी का आशिक हूँ भाई , जान, और उसी का आशिक रहूँगा।