पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६

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प्रेरणा

मेरी कक्षा में सूर्यप्रकाश से ज़्यादा ऊधमी कोई लड़का न था, बल्कि यो कहो कि अध्यापन-काल के दस वर्षों में मुझे ऐसी विषम प्रकृति के शिष्य से साबका न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और चिढ़ाने, उद्योगी बालकों को छेड़ने और रुलाने मे ही उसे आनन्द आता था। ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचता, ऐसे-ऐसे फदे डालता, ऐसे-ऐसे बाँधनू बांधता कि देखकर आश्चर्य होता था। गरोहबंदी मे अभ्यस्त था।

खुदाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आतक से शाला पर शासन करता था। मुख्य अधिष्ठाता की आज्ञा टल जाय 3 मगर क्या मजाल कि कोई उसके हुक्म की अवज्ञा कर सके। स्कूल के चपरासी और अर्दली उससे थर थर कांपते थे। इस्पेक्टर का मुयाइना होनेवाला था, मुख्य अधिने हुक्म दिया कि लड़के निर्दिष्ट समय से आध घंटा पहले आ जायें। मतलब यह था कि लड़कों को मुआइने के बारे में कुछ जरूरी बाते बता दी जायें; मगर दस बज गये, इस्पेक्टर साहब श्राकर बैठ गये, और मदरसे में एक लड़का भी नहीं। ग्यारह बजे सब छात्र इस तरह निकल पड़े, जैसे कोई पिंजरा खोल दिया गया हो। इस्पेक्टर साहब ने कैफियत मे लिखा-डिसिप्लिन बहुत ख़राब है। प्रिंसिपल साहब की किरकिरी हुई, अध्यापक बदनाम हुए, और यह सारी शरारत सूर्यप्रकाश की थी, मगर बहुत पूछ-ताछ करने पर भी किसी ने सूर्यप्रकाश का नाम तक न लिया। मुझे अपनी सचालनविधि पर गर्व था। ट्रेनिंग कालेज मे इस विषय मे मैंने ख्याति प्राप्त की थी ; मगर यहाँ मेरा सारा सचालन-कौशल जैसे मोर्चा खा गया था। कुछ अक ही काम न करती कि शैतान को कैसे सन्मार्ग पर लायें। कई बार अध्यापकों की बैठक हुई ; पर यह गिरह न खुली। नई शिक्षा-विधि के अनुसार मैं दडनीति का पक्षपाती न था ; मगर यहाँ हम इस नीति से केवल इस लिए विरक्त थे कि कहीं उपचार रोग से भी असाध्य न हो जाय। सूर्यप्रकाश को स्कूल से