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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७

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मानसरोवर

निकाल देने का प्रस्ताव भी किया गया ; पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण समझकर हम इस नीति का व्यवहार करने का साहस न कर सके। बीस-बाईस अनुभवी और शिक्षण-शास्त्र के प्राचार्य एक बारह-तेरह साल के उद्दड बालक का सुधार न कर सके, यह विचार बहुत ही निराशाजनक था। यों तो सारा स्कूल उससे त्राहि-त्राहि करता था; मगर सबसे ज्यादा सकट मे मैं था ; क्योकि वह मेरी कक्षा का छात्र था, और उसकी शरारतो का कुफल मुझे भोगना पड़ता था। मैं स्कूल आता, तो हरदम यही खटका लगा रहता था कि देखे श्राज क्या विपत्ति आती है। एक दिन मैने अपनी मेज की दराज खोली, तो उसमें से एक बड़ा-सा मेंढक निकल पड़ा। मै चौककर पीछे हटा तो क्लास मे एक शोर मच गया। उसकी ओर सरोप नेत्रों से देखकर रह गया । सारा घटा उपदेश मे बीत गया और वह पट्टा सिर झुकाये नीचे मुसकरा रहा था। मुझे आश्चर्य होता था कि यह नीचे की कक्षामो में कैसे पास हुआ था। एक दिन मैंने गुस्से से कहा-तुम इस कक्षा से उम्र भर नहीं पास हो सकते। सूर्यप्रकाश ने अविचलित भाव से कहा-आप मेरे पास होने की चिता न करे। मैं हमेशा पास हुआ हूँ और अबकी भी हूँगा।

'असभव।'

'असभव सभव हो जायगा!'

मैं साश्चर्य उसका मुंह देखने लगा। जहीन से ज़हीन लड़का भी अपनी सफलता का दावा इतने निर्विवाद रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा, वह प्रश्न-पत्र उड़ा लेता होगा। मैंने प्रतिज्ञा की, अबकी इसकी एक चाल भी न चलने दूंगा। देखू, कितने दिन इस कक्षा मे पडा रहता है। आप घबड़ाकर निकल जायगा। वार्षिक परीक्षा के अवसर पर मैने असाधारण देख-भाल से काम लिया मगर जब सूर्यप्रकाश का उत्तर-पत्र देखा, तो मेरे विस्मय की सीमा न रही। मेरे दो पर्चे थे, दोनों ही में उसके नम्बर कक्षा में सबसे अधिक थे। मुझे खूब मालूम था कि वह मेरे किसी पर्चे का कोई प्रश्न भी हल नहीं कर सकता। मैं इसे सिद्ध कर सकता था; मगर उसके उत्तर-पत्रों को क्या करता! लिपि में इतना भेद न था, जो कोई सदेह उत्पन्न कर सकता। मैंने पिंसिपल