पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६६

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मगर ढपोरसंख देवीजी ने टीका की-जभी माथुर की भांजी पर. डोरे डाल रहा था। दुःख का भार कैसे हलका करता ! ढपोरसख ने विगड़कर कहा-अच्छा, तो अब तुम्हीं कहो । मैंने समझाया-तुम तो यार जरा-जरा सी बात पर तिनक उठते हो। क्या तुम समझते हो, यह फुलझडिया मुझे न्याय-पथ से विचलित कर देगी ? फिर कहानी शुरू हुई–एक दिन आकर बोला-अाज मैंने माथुर के उद्धार का उपाय सोच निकाला। मेरे एक माथुर मित्र बैरिस्टर हैं। उनसे जग्गो माथुर की भाजी) के विवाह के विषय में पत्र व्यवहार कर रहा हूँ। उसकी एक विधवा बहन को दोनों बच्चो के साथ ससुराल भेज दूंगा । दूसरी विधवा बहन अपने देवर के पास जाने पर राजी है। बस, तीन-चार आदमी रह जायेंगे । कुछ मैं दूंगा, कुछ माथुर पैदा करेगा, गुजर हो जायगा आज उसके घर के दो महीनों का किराया देना पड़ेगा। मालिक मकान ने सुबह-ही से धरना दे रखा है। कहता है, अपना किराया लेकर ही हटूगा। आपके पास तीस रुपये हो, तो दे दीजिए । माथुर के छोटे भाई का वेतन कल- परसों तक मिल जायगा, रुपये मिल जायेंगे। एक मित्र सकट में पड़ा हुआ है । दूसरा मित्र उसकी सिफ़ारिश कर रहा है। मुझे इनकार करने का साहत न हुआ। देवीजी ने उस वक्त नाक भौ जरूर सिकोड़ा था, पर मैंने न माना। रुपये दे दिये। देवीजी ने डक मारा- यह क्यों नहीं कहते, कि वह रुपये मेरी बहन ने बरतन खरीदकर भेजने के लिए भेजे थे। ढपोरसख ने गुस्सा पीकर कहा- खैर, यही सही। मैंने रुपये दे दिये , मगर मुझे यह उलझन होने लगी, कि इस तरह तो मेरा कचूमर ही निकल जायगा । माथुर पर एक न-एक सकट रोज़ ही सवार रहेगा। मैं कहाँ तक उन्हें उबारूँगा। जोशी भी जान खा रहा था कि कहीं कोई जगह दिला दीजिए । सयोग से उन्हीं दिनो मेरे एक आगरे के मित्र आ निकले। काउ. सिल के मेंबर थे । अब जेल में हैं । गाने-बजाने का शौक है, दो-एक ड्रामे भी लिख चुके हैं, अच्छे-अच्छे रईसो से परिचय है। खुद भी बड़े रसिक हैं । अबकी वह आये, तो मैंने जोशी का उनसे जिक्र किया। उसका ड्रामा भी