पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/८३

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मानसरोवर अमर अापके संदेह का क्या कहना । आपको ईश्वर पर भी संदेह है। मस्त-ड्रामाटिस्ट भी बहुत खुश हो रहा था । 'दस-बारह हज़ार का चारा-न्यारा है । भई, आज इस खुशी में एक दावत होनी चाहिए । गुरुप्रसाद-अरे, तो कुछ बोहनी-बट्टा तो हो जाय । मस्त-जी नहीं, तब तो जलसा होगा । आज दावत होगी। विनोद--भाग्य के बली हो तुम गुरुप्रसाद । रसिक-मेरी राय है, ज़रा उस ड्रामाटिस्ट को गांठ लिया जाय । उसका मौन मुझे भयभीत कर रहा है । मस्त-आप तो वाही हुए हैं । वह नाक रगड़कर रह जाय, तब भी यह सौदा होकर रहेगा। सेठजी अब बचकर निकल नहीं सकते । विनोद-हम लोगों की भूमिका भी तो ज़ोरदार थी। अमर-उसी ने तो रंग जमा दिया। अब कोई छोटी रकम कहने का उसे साहस न होगा। अभिनय- रात को गुरुप्रसाद के घर मित्रो की दावत हुई । दूसरे दिन कोई ६ बजे पांचों आदमी सेठजी के पास जा पहुंचे। सध्या का समय हवाखोरी का है। आज मोटर पर न आने के लिए बना-बनाया बहाना था। सेठजी आज बेहद खुश नज़र आते थे । कल की वह मुहर्रमी सूरत अतरधान हो गई थी। बात-बात पर चहकते थे, हॅसते थे, जैसे लखनऊ का कोई रईस हो । दावत का सामान तैयार था । मेज़ों पर भोजन चुना जाने लगा । अँगूर, संतरे, केले, सूखे मेवे, कई किस्म की मिठाइयां, कई तरह के मुरब्बे, शराब आदि सजा दिये गये और यारो ने खूब मजे से दावत खाई । सेठजी मेहमाननेवाजी के पुतले बने हुए हरेक मेहमान के पास आ-पाकर पूछते-कुछ और मँगवाऊँ ? कुछ तो और लीजिए । आप लोगों के लायक भोजन यहाँ कहाँ बन सकता है। भोजन के उपरति लोग बैठे, तो मुअामले की बात चीत होने लगी। गुरुप्रसाद का हृदय श्राशा और भय से कांपने लगा। सेठजी-हज़र ने बहुत ही सुदर नाटक लिखा है। क्या बात है । --