पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/८८

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दारोगाजी अचकन पहने, तुर्की टोपी लगाये, तांगे के सामने से निकले। दारोगाजी ने उन्हें देखते ही झुककर सलाम किया और शायद मिज़ाज शरीफ पूछना चाहते थे कि उस भले आदमी ने सलाम का जवाब गालियों से देना शुरू किया जब तांगा कई कदम आगे निकल पाया, तो वह एक पत्थर लेकर तांगे के पीछे दौड़ा । तांगेवाले ने घोड़े को तेज़ किया। उस भलेमानुस ने भी कदम तेज किये और पत्थर फेका । मेरा सिर बाल-बाल बच गया। उसने दूसरा पत्थर उठाया, वह हमारे सामने आकर गिरा। तीसरा पत्थर इतने ज़ोर से आया कि दारोगाजी के घुटने में बडी चोट आई, पर इतनी देर में तांगा इतनी दूर निकल आया था कि हम अब पत्थरो की मार से दूर हो गये थे । हाँ, गालियों की मार अभी तक जारी थी । जब तक वह आदमी आँखों से श्रोझल न हो गया, हम उसे एक हाथ में पत्थर उठाये, गालियां बकते हुए देखते रहे। जब जरा चित्त शान्त हुआ, मैंने दारोगाजी से पूछा-यह कौन आदमी है साहब ? कोई पागल तो नहीं है ? दारोगाजी ने घुटने को सहलाते हुए कहा-पागल नहीं है साहब, मेरा पुराना दुश्मन है। मैंने समझा था, जालिम पिछली बाते भूल गया होगा। वरना मुझे क्या पड़ी थी कि सलाम करने जाता। मैने पूछा-आपने इसे किसी मुकदमे मे सजा दिलाई होगी। 'बड़ी लबी दास्तान है जनाब ! बस इतना ही समझ लीजिए कि इसका बस चले, तो मुझे जिंदा ही निगल जाय ।' 'श्राप तो शौक़ की प्राग को और भड़का रहे हैं। अब तो वह दास्तान सुने बगैर तस्कीन न होगी। दारोग़ाजी ने पहलू बदलकर कहा-अच्छी बात है, सुनिए । कई साल मैं सदर में ही तैनात था । बेफिक्री के दिन थे, ताज़ा खून, एक माशूक से आँख लड गई। अामद-रफ्त शुरू हुई । अब भी जब उस हसीना की याद श्राती है, तो आँखों से आंसू निकल आते हैं । बाजारू औरतो मे इतनी हया, इतनी वफा, इतनी मुरव्वत मैंने नहीं देखी । दो साल उसके साथ इतने लुत्फ से गुज़रे कि आज भी उसकी याद करके रोता हूँ । मगर किस्से को बढ़ाऊँगा