पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/८९

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८८ मानसरोवर , नहीं, वरना अधूरा ही रह जायगा। मुख्तसर यह कि दो साल के बाद मेरे तबादले का हुक्म श्रा गया । उस वक्त दिल को जितना सदमा पहुँचा उसका ज़िक्र करने के लिए दफ्तर चाहिए। बस, यही जी चाहता था कि इस्तीफा दे दूं। उस हसीना ने यह खबर सुनी, तो उसकी जान-सी निकल गई। सफर की तैयारी के लिए मुझे तीन दिन मिले थे। ये तीन दिन हमने मसूवे बांधने में काटे । उस वक्त मुझे अनुभव हुश्रा कि औरतों को अज से खाली समझने में हमने कितनी बड़ी गलती की है। मेरे मंसूवे शेखचिल्ली के-से होते थे। कलकत्ते भाग चले, वहाँ कोई दूकान खोल दे, या इसी तरह कोई दूसरी तजवीज़ करता। लेकिन वह यही जवाब देती कि अभी वहाँ जाकर अपना काम करो । जब मकान का बदोबस्त हो जाय, तो मुझे बुला लेना । मैं दौड़ी चली आऊँगी। आखिर जुदाई की घड़ी आई । मुझे मालूम होता था कि अब जान न बचेगी । गाड़ी का वक्त निकला जाता था, और मैं उसके पास से उठने का नाम न लेता था। मगर मैं फिर किस्से को तूल देने लगा। खुलासा यह कि मैं उसे दो-तीन दिन में बुलाने का वादा करके रुखसत हुआ । पर अफसोस ! वे दो-तीन दिन कभी न आये । पहले दस पांच दिन तो अफसरों से मिलने और इलाके की देखभाल में गुजरे। इसके बाद घर से ख़त आ गया कि तुम्हारी शादी तय हो गई ; रुखसत लेकर चले आओ। शादी की खुशी मे उस वफा की देवो की मुझे फ़िक न रही। शादी करके महीने भर बाद लौटा, तो बीबी साथ थी। रही-सही याद भी जाती रही। उसने एक महीने के बाद एक खत भेजा; पर मैंने उसका जवाब न दिया। डरता रहता था कि कहीं एक दिन वह अाकर सिर पर सवार न हो जायें; फिर बीबी को मुंह दिखाने लायक भी न रह जाऊँ। साल भर के बाद मुझे एक काम से सदर प्राना पड़ा। उस वक्त मुझे उस औरत की याद आई, सोचा, जरा चलकर देखना चाहिए, किस हालत में है। फ़ौरन अपने ख़त न भेजने और इतने दिनों तक न आने का जवाब सोच लिया और उसके द्वार पर जा पहुंचा । दरवाज़ा साफ-सुथरा या, मकान की हालत भी पहले से अच्छी थी। दिल को खुशी हुई कि इसकी हालत