चोरी हाय बचपन ! तेरी याद नहीं भूलती ! वह कच्चा, टूटा घर, वह पयाल का बिछौना , वह नगे बदन, नगे पवि खेतों में घूमना ; आम के पेड़ों पर चढना-सारी बातें आँखो के सामने फिर रही है। चमरौधे जूते पहनकर उस वक्त जितनी खुशी होती थी, अब 'फ्लैक्स' के बूटो से भी नहीं होती। गरम पनुए रस मे जो मजा था, वह अव गुलाव के शर्वत मे भी नहीं , चबेने और कच्चे वैरों मे जो रस था, वह अव अगूर और खीरमोहन मे भा नहीं मिलता। मैं अपने चचेरे भाई हलवर के साथ दूसरे गांव में एक मौलवी साहव के यहाँ पढ़ने जाया करता था। मेरी उन आठ साल यो, हलधर ( वह अव स्वर्ग में निवास कर रहे हैं ) मुझसे दो साल जेठे थे। हम दोनों प्रात काल वासी रोटियाँ खा, दोपहर के लिए मटर और जौ का चबेना लेकर चल देते थे। फिर तो सारा दिन अपना था। मौलवी साहब के यहां कोई हाज़िरी का रजिस्टर तो था नहीं, और न गैरहाज़िरी का जुर्माना ही देना पड़ता था। फिर डर किस बात का ! कभी तो थाने के सामने खड़े सिपाहियो की कवायद देखते, कभी किसी भालू या वन्दर नचानेवाले मदारी के पीछे-पीछे घूमने मे दिन काट देते, कभी रेलवे स्टेशन की ओर निकल जाते और गाड़ियों की वहार देखते । गाड़ियों के समय का जितना ज्ञान हमको था, उतना शायद टाइम-टेविल को भो न था। रास्ते में शहर के एक महाजन ने एक बाग लगवाना शुरू लिया था। वहाँ एक कुआं खुद रहा था। वह भी हमारे लिए एक दिलचस्प तमाशा था। बूढ़ा माली हमें अपनी झोपड़ी में बड़े प्रेम से बैठाता था। हम उससे झगड़- झगड़कर उसका काम करते। कहीं वाल्टी लिये पौदो को सींच रहे हैं, कहीं खुरपी से क्यारियां गोड़ रहे हैं, कहीं कैंची से वेलों की पत्तियाँ छाँट रहे हैं। उन कामों में कितना आनन्द था ! माली वाल-प्रकृति का पण्डित था। हमसे काम लेता , पर इस तरह, मानो हमारे ऊपर कोई एहसान कर रहा है । जितना काम वह दिनभर में करता, हम घण्टेभर में निवटा देते थे। अब वह माली नहीं है , लेकिन बारा हरा-भरा है। उसके पास से होकर गुजरता हूँ. तो जी चाहता है, उन पेड़ो के गले मिलकर रोऊँ,
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