१०४ मानसरोवर और कहूँ- प्यारे, तुम मुझे भूल गये हो , लेकिन मैं तुम्हें नहीं भूला , मेरे हृदय में तुम्हारी याद अभी तक हरी है-उतनी ही हरी, जितने तुम्हारे पत्ते । नि स्वार्थ प्रेम के तुम जीते-जागते स्वरूप हो । कभी-कभी हम हफ्तों गैरहाजिर रहते , पर मौलवी साहब से ऐसा वहाना कर देते कि उनकी चढी हुई त्योरियाँ उतर जातीं। उतनी कल्पना-शक्ति आज होती, तो एसा उपन्यास लिख मारता कि लोग चकित रह जाते । अब तो यह हाल है कि बहुत सिर खपाने के बाद कोई कहानी सूझती है। खैर, हमारे मौलवी साहब दरजी थे। मौलवीगिरी केवल शौक से करते थे। हम दोनो भाई अपने गांव के कुरमो-कुम्हारों से उनकी खूब बड़ाई करते थे। या कहिए कि हम मौलवी साहब के सफरी एजेंट थे। हमारे उद्योग से जब मौलवी साहब को कुछ काम मिल जाता, तो हम फूले न समाते। जिस दिन कोई अच्छा बहाना न सूझता, मौलवी साहब के लिए कोई-न-कोई सौगात ले जाते । कभी सेर-आध सेर फलियां तोड़ ली, तो कभी दस पाँच ऊख ; कभी जौ या गेहूँ की हरी-हरी वालें ले ली, इन सौगातों को देखते ही मौलवी साहब का क्रोध शान्त हो जाता । जब इन चीजों की फसल न होती, तो हम सजा से बचने का कोई और ही उपाय सोचते । मौलवी साहब को चिड़ियों का शौक था । मकतब में श्यामा, बुलबुल, दहियल और चकूलों के पिंजरे लटकते रहते थे। हमें सवक याद हो या न हो, पर चिड़ियों को याद हो जाते थे। हमारे साथ ही वे भी पढा करती थीं। इन चिड़ियों के लिए बेसन पीसने मे हम लोग खूब उत्साह दिखाते थे। मौलवी साहब सब लड़कों को पतिगे पकड़ लाने की ताकीद करते रहते थे। इन चिड़ियों को पतिंगों से विशेष रुचि थी। कभी-कभी हमारी बला पतिगो ही के सिर चली जाती थी। उनका बलि- दान करके हम मौलवी साहब के रौद्र-रूप को प्रसन्न कर लिया करते थे। एक दिन सबेरे हम दोनों भाई तालाब में मुँह धोने गये, तो हलधर ने कोई सफेद-सी चीज़ मुट्ठी में लेकर दिखाई। मैंने लपककर मुट्ठी खोली, तो उसमें एक रुपया था। विस्मित होकर पूछा-यह रुपया तुम्हें कहाँ मिला ? हलधर-अम्माँ ने ताक पर रखा था , चारपाई खड़ी करके निकाल लाया । घर में कोई सन्दूक या आलमारी तो थी नहीं , रुपये-पैसे एक ऊँचे ताक पर रख दिये जाते थे। एक दिन पहले चचाजी ने सन बेचा था । उसी के रुपये जमींदार को देने के लिए रखे हुए थे। हलधर को न-जाने क्योंकर पता लग गया। जब घर
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