पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२० मानसरोवर 2 मुन्नू-हजूर, आपकी बुराई सुनके नहीं रहा जाता, फिर चाहे वह अपने घर का लाट ही क्यों न हो, भिड़ पडूगा। वह महाजन होगा, तो अपने घर का होगा। यहाँ कौन उसका दिया खाते हैं। देवी-उस घर में अभी कोई आया कि नहीं? मुन्नू-कई आदमी देखने आये हजूर, मगर जहाँ आप रह चुकी हैं, वहाँ अव दूसरा कौन रह सकता है ? हम लोगों ने उन लोगों को भडका दिया। रज़ा मियाँ तो हजूर, उसी दिन से खाना-पीना छोड़ बैठे हैं। विटिया को याद कर-करके रोया करते हैं। हजूर को हम गरीबो की याद काहे को आती होगी ? देवी-याद क्यों नहीं आती ? क्या मैं आदमी नहीं हूँ ? जानवर तक थान छूटने पर दो-चार दिन चारा नहीं खाते । यह पैसे लो, कुछ बाजार से लाकर खा लो। भूखे होगे। मुन्नू-हजूर की दुआ से खाने की तगी नहीं है। आदमी का दिल देखा जाता है हजूर, पैसों की कौन बात है। आपका दिया तो खाते ही हैं । हजूर का मिजाज ऐसा है कि आदमी विना कौड़ी का गुलाम हो जाता है। तो अब चलूंगा हजूर, बाबूजी आते होंगे। कहेंगे-यह सैतान यहाँ फिर आ पहुँचा। देवी-अभी उनके आने में बड़ी देर है। मुन्नू-ओहो, एक बात तो भूला ही जाता था । रज़ा मियाँ ने बिटिया के लिए ये खिलौने दिये थे। बातों में ऐसा भूल गया कि इनकी सुध ही न रही । कहाँ है विटिया ? देवी-अभी तो मदरसे से नहीं आई , मगर इतने खिलौने लाने की क्या ज़रूरत थी ? अरे ! रज़ा ने तो राज़ब ही कर दिया। भेजना ही था, तो दो-चार आने के खिलौने भेज देते। अकेली मेम तीन-चार रुपये से कम की न होगी। कुल मिलाकर तीस-पंतीस रुपये से कम के खिलौने नहीं हैं। मुन्नू - क्या जाने सरकार, मैंने तो कभी खिलौने नहीं खरीदे। तीस-पैतीस रुपये के ही होंगे, तो उनके लिए कौन बड़ी बात है ? अकेली दूकान से पचास रुपये रोज की आमदन है, हजूर । देवी-नहीं, इनको लौटा ले जाओ। इतने खिलौने लेकर वह क्या करेगी ? मैं एक मेस रखे लेती हूँ।