लाछन ११९ उसका चित्त लालायित हो रहा था। मुन्नू ने अन्दर आकर कहा-सरकार, जबसे आपने वह मकान छोड़ दिया, कसम ले लिजिए, जो उवर एक बार भो गया हूँ। उस घर को देखकर रोना आने लगता है। मेरा भी जी चाहता है कि इसी महल्ले मे आ जाऊँ। पागलों की तरह इधर-उबर मारा फिरा करता हूँ सरकार, किसी काम मे जो नहीं लगता। बस, हर घड़ी आप ही की याद आती रहती है। हजूर जितनी परवरिस करती थीं, उतनी अब कौन करेगा ? यह मकान तो बहुत छोटा है। देवी-तुम्हारे ही कारन तो वह मकान छोड़ना पड़ा। मुन्नू -मेरे कारन ! मुझसे कौन-सी खता हुई, सरकार ? देवी-तुम्हीं तो तांगे पर रज़ा के साथ बैठे मेरे पीछे चले आ रहे थे। ऐसे आदमी पर आदमी को शक होता हो है। मुन्नू-अरे सरकार, उस दिन की बात कुछ न पूछिए। रजा मियाँ को एक वकील साहब से मिलने जाना या । वह छावनी मे रहते है। मुझे भी साथ बिठा लिया। उनका साईस कहीं गया हुआ था। मारे लिहाज़ के आपके ताने के आगे न निकालते थे । सरकार उसे शोहदा कहती हैं। उसका-सा भला आदमी महल्ले-भर मे नहीं है। पांचो वखत की नमाज पढता है हजूर, तीसो रोजे रेखता है। घर मे वीवी-बच्चे सभी मौजूद हैं। क्या मजाल कि किसी पर वदनिगाह हो। देवी - संर होगा, तुम्हारे सिर में पट्टी क्यों बँधी है ? मुन्नू - इसका माजरा न पूछिए हजूर ! आपकी बुराई करते किसी को देखता हूँ, तो बदन मे आग लग जातो है। दरवाजे पर जो हलवाई रहता न था, कहने लगा - मेरे कुछ पैसे बाबूजी पर आते हैं। मैंने कहा-~वह ऐसे आदमी नहीं हैं कि तुम्हारे पैसे हजम कर जाते। वस, हजूर, इसी वात पर तकरार हो गई। मैं तो दृकान के नीचे नाली धो रहा था। वह ऊपर से कूदकर आया, और मुझे ढकेल दिया। में वेखबर सड़ा या, चारों खाने चित सड़क पर गिर पड़ा। चोट तो आई , मगर मैंने भी दूकान के सामने वचा को इतनी गालियां सुनाई कि याद ही करते होगे। अत्र घाव अच्छा हो रहा है, हजूर । देवी- राम ! राम ! नाहक लड़ाई लेने गये। सीवी-सी बात तो थी। कह देते-तुम्हारे पेसे आते है, तो जाकर मांग लाओ। हे तो शहर ही मे, किसी दूसरे देश तो नहीं भाग गये ?
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