पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१४९

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कजाको १४५ हुआ 9 1 यह कहते-कहते उसकी निगाह टोकरी पर पड़ी, जो वहीं रखी थी। बोला- यह आटा कैसा है, भैया ? मैंने सकुचाते हुए कहा-तुम्हारे ही लिए तो लाया हूँ। तुम भूखे होगे, आज क्या खाया होगा? कजाकी आँखें तो मैं न देख सका, उसके कन्धे पर बैठा हाँ, उसकी आवाजसे मालूम हुआ कि उसका गला भर आया है। बोला-भैया, क्या रूखी रोटियाँ खाऊँगा । दाल, नमक, घो - और तो कुछ नहीं है में अपनी भूलपर बहुत लज्जित हुआ। सब तो है, बेचारा रूखी रोटियां कैसे खायगा 2 लेकिन नमक, दाल, धी कैसे लाऊँ ? अव तो अम्माँ चोके में होंगी। आटा लेकर तो किसी तरह भाग आया था ( अभी तक मुझे न मालूम था कि मेरी चोरी पकड़ ली गई , आटेकी लकीर ने सुराग दे दिया है । ) अब ये तीन-तीन चीजें कैसे लाऊँगा ? अम्मां से मांगूं गा, तो कभी न देंगी। एक-एक पैसेके लिए तो घटो रुलाती हैं, इतनी सारी चीजें क्यों देने लगी ? एकाएक मुझे एक बात याद आई । मैने अपनी किताबो के वस्ते मे कई आने पैसे रख छोड़े थे। मुझे पैसे जमा करके रखने मे बड़ा आनन्द आता था । मालूम नहीं, अब वह आदत क्यो वदल गई । अव भी वही हालत होती, तो शायद इतना फाकेमस्त न रहता। बाबूजी मुझे प्यार तो कभी न करते थे, पर पैसे खूब देते थे, शायद अपने काम में व्यस्त रहने के कारण, मुझसे पिड छुड़ाने के लिए इसी नुस्खे को सबसे आसान समझते थे। इनकार करने मे मेरे रोने और मचलने का भय था। इस बाधा को वह दूर ही से टाल देते थे। अम्मांजी का स्वभाव इससे ठीक प्रतिकूल था। उन्हें मेरे रोने और मचलने से किसी काममें वावा पड़ने का भय न था। आदमी लेटे-लेटे दिन-भर रोना सुन सकता है , हिसाब लगाते हुए ज़ोर की आवाज से भी ध्यान बँट जाता है । अम्माँ मुझे प्यार तो बहुत करती थी , पर पैसे का नाम सुनते ही उनकी त्योरियां बदल जाती थी। मेरे पास कितावे न थीं , हाँ एक बस्ता था, जिसमें डाकखाने के दो-चार फार्म तह करके पुस्तक के रूप में रखे हुए थे। मैंने सोचा - दाल नमक और घी के लिए क्या उतने पैसे काफी न होंगे ? मेरी तो मुट्ठी में नहीं आते । यह निश्चय करके मैंने कहा- अच्छा, मुझे उतार दो, तो मैं दाल ओर नमक ला दूं, मगर रोज आया करोगे न । कजाकी-भैया, खाने को दोगे, तो क्यो न आऊँगा। 3