पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१५१

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कजाको १४७ . थीं। उन्होंने कजाकी से कोई वात को या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता ; लेकिन अम्मांजी खाली टोकरी लिये हुए घर में आई। फिर कोठरी में जाकर सन्दूक से कुछ निकाला और द्वार की ओर गई। मैंने देखा-उनकी मुट्ठी बन्द थी। अब मुझसे वहाँ खड़े न रहा गया। अम्मांजी के पीछे-पीछे मैं भी गया । अम्माँ ने द्वार पर कई बार पुकारा , मगर कजाकी चला गया था। मैंने बड़ी वीरता से कहा -मैं जाकर खोज लाऊँ, अम्मांजी । अम्माजी ने किवाड़े बन्द करते हुए कहा-तुम अँधेरे में कहाँ जाओगे, अभी तो खड़ा था । मैंने कहा- यहीं रहना , मैं आती हूँ। तब तक न-जाने कहाँ खिसक गया। बड़ा सकोची है। आटा तो लेता ही न था। मैंने ज़बरदस्ती उसके अंगोछे मे बांध दिया। मुझे तो बेचारे पर बड़ी दया आती है। न-जाने बेचारे के घर में कुछ खाने को है कि नहीं । रुपए लाई यी कि दे दूंगी , पर न-जाने कहाँ चला गया। अब तो मुझे भी साहस हुआ । मैंने अपनी चोरो की पूरी कथा कह डालो। बच्चों के साथ समझदार बच्चे बनकर मा वाप उन पर जितना असर डाल सकते हैं, जितनी शिक्षा दे सकते हैं, उतने बूढे बनकर नहीं। अम्माजी ने कहा -तुमने मुझसे पूछ क्यों न लिया ? क्या मैं कजाकी को थोड़ा- सा आटा न देती? मैंने इसका कोई उत्तर न दिया। दिल में कहा- इस वक्त तुम्हें कजाकी पर दया आ गई है, जो चाहे दे डालो , लेकिन मैं मांगता, तो मारने दौड़तीं। हाँ, यह सोचकर चित्त प्रसन्न हुआ कि अब कजाकी भूखों न मरेगा । अम्माजी उसे रोज़ खाने को देंगी और वह रोज़ मुझे कन्धे पर विठाकर सैर करायेगा। दूसरे दिन मैं दिन-भर मुन्नू के साथ खेलता रहा। शाम को सड़क पर जाकर खड़ा हो गया। मगर अँधेरा हो गया और कजाकी का कहीं पता नहीं। दिये जल गये, रास्ते में सन्नाटा छा गया ; पर कजाकी न आया । मैं रोता हुआ घर आया । अम्माँजो ने पूछा-क्यों रोते हो बेटा ? क्या कजाकी नहीं आया ? मैं और जोर से रोने लगा। अम्माजी ने मुझे छाती से लगा लिया, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि उनका वंठ भी गद्गद् हो गया है।