पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४८ मानसरोवर उन्होंने कहा- बेटा, चुप हो जाओ। मैं कल किसी हरकारे को भेजकर कजाकी को बुलवाऊँगी। मैं रोते-ही-रोते मर गया । सबेरे ज्योंही आँख खुली, मैंने अम्मांजी से कहा- कजाकी को वुलवा दो। अम्मा ने कहा-आदमी गया है बेटा, कजाकी आता होगा। मैं खुश होकर खेलने लगा। मुझे मालूम था कि अम्माजी जो बात कहती हैं, उसे पूरा जरूर करती हैं। उन्होंने सबेरे ही एक हरकारे को भेज दिया था । दस बजे जब मैं मुन्नू को लिये हुए घर आया, तो मालूम हुआ कि कजाकी अपने घर पर नहीं मिला । वह रात को भी घर न गया था। उसकी स्त्री रो रही थी कि न-जाने कहाँ चले गये । उसे भय था कि वह कहीं भाग गया है बालकों का हृदय क्तिना कोसल होता है, इसका अनुमान दूसरा नहीं कर सकता। उनमें अपने भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होते । उन्हें यह भी ज्ञात नहीं होता कि कौन-सी बात उन्हें विकल कर रही है, कौन-सा काँटा उनके हृदय में खटक रहा है, क्यों वार-बार उन्हें रोना आता है, क्यों वे मनमारे बैठे रहते हैं, खेलने में जी नहीं लगता ? मेरी भी यही दशा थी। कभी घर में आता, कभी बाहर जाता, कभी सड़क पर जा पहुंचता । आँखें कजाकी को ढूँढ़ रही थी। वह कहाँ चला गया ? कहीं भाग तो नहीं गया ! तीसरे पहर को मैं खोया हुआ-सा सड़क पर खड़ा था। सहसा मैंने कजाकी को एक गली में देखा । हाँ, वह कजाकी ही था। मैं उसकी ओर चिल्लाता हुआ दौड़ा , पर गली में उसका पता न था, न-जाने किधर गायब हो गया। मैंने गली के इस सिरे से उस सिरे तक देखा , मगर कहीं कजाकी की गन्ध तक न मिली। घर आकर मैंने अम्माजी से यह बात कही। मुझे ऐसा जान पड़ा कि वह यह वात सुनकर बहुत चिन्तित हो गई। इसके बाद दो-तीन दिन तक कजाकी न दिखलाई दिया । मैं भी अब उसे कुछ कुछ भूलने लगा। बच्चे पहले जितना प्रेम करते हैं, बाद को उतने ही निष्ठुर भी हो जाते हैं ; जिस खिलौने पर प्राण देते हैं , उसी को दो-चार दिन के बाद पटककर फोड़ भी डालते हैं। दस-बारह दिन और बीत गये। दोपहर का समय था। बाबूजी खाना खा रहे B