पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आँसुओं को होलो १५३ । सिलविल ने लोरियाँ चढ़ाकर कहा- वस, मैंने एक बार कह दिया और बात दोह- राना मुझे पसन्द नहीं। घर में रग नहीं आयेगा और न कोई छुयेगा। मुझे कपड़ों पर लाल छींटे देखकर मतली आने लगती है। हमारे घर में ऐसी ही होली होती है। स्त्री ने सिर झुकाकर कहा- तो न लाना रग-सग, मुझे रग लेकर क्या करना है । जब तुम्हीं रग न छुओगे, तो मैं कैसे छू सकती हूँ। सिलविल ने प्रसन्न होकर कहा-निस्सन्देह यही साध्वी स्त्री का धर्म है। 'लेकिन भैया तो आनेवाले हैं। वह क्यो मानेगे ?' 'उनके लिए भी मैंने एक उपाय सोच लिया है। उसे सफल करना तुम्हारा काम है। मैं बीमार बन जाऊँगा। एक चादर ओढकर लेट रहूँगा। तुम कहना, इन्हें ज्वर आ गया । बस, चलो.छुट्टी हुई।' स्त्री ने आँखें नचाकर कहा-ऐ नौज, कैसी वार्ते मुँह से निकालते हो ! ज्वर जाय मुद्दई के घर, यहाँ आये तो मुंह झुलस टू निगोड़े का । 'तो फिर दूसरा उपाय ही क्या है ?' 'तुम ऊपरवाली छोटी कोठरी मे छिप रहना, मे कह दूंगी, उन्होने जुलाब लिया है । वाहर निकलेंगे तो हवा लग जायगी।' पण्डितजी खिल उठे-बस-बस, यह सबसे अच्छा । ( २ ) होली का दिन है । वाहर हाहाकर मचा हुआ है। पुराने जमाने में अबीर और गुलाल के सिवा और कोई रग न रखेला जाता था। अब नीले, हरे, काले, सभी रगो का मेल हो गया है और इस सगठन से वचना आदमी के लिए तो सभव नहीं। हाँ, देवता बचें, तो बचें । सिलविल के दोनो माले मुहल्ले भर के मदो, औरतो, बच्चों और बूढों का निशाना बने हुए थे। इन्होंने भी एक हण्डा रग घोल रखा था। सिकन्दरी हमले कर रहे थे। बाहर के दीवानखाने के फर्श, दीवारे यहाँ तक की तस्वीरें भी रग उठी थीं । घर मे भी यही हाल था। मुहल्ले की ननदें भला कव मानने लगी थीं। परनाला तक रगीन हो गया था। बड़े साले ने पूछा - क्यों री चम्पा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छी नहीं, खाना खाने भी न आये ?