१५४ मानसरोवर चम्पा ने सिर झुकाकर कहा-हाँ भैया, रात ही से कुछ पेट में दर्द होने लगा, डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। जरा देर बाद छोटे साले ने कहा- क्यो जीजीजी, क्या भाई साहब नीचे नहीं आयेंगे ? ऐसी भी क्या बीमारी है ! कहो तो ऊपर जाकर देख आऊँ। चम्पा ने उसका हाथ पकड़कर कहा-नहीं-नही, ऊपर मत जैयो ! वह रग-वग न खेलेंगे । डाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है। दोनो भाई हाथ मलकर रह गये। सहसा छोटे भाई को एक बात सूझी-जीजाजी के कपड़ों के साथ क्यो न होली खेलें। वे तो नहीं बीमार है। बड़े भाई के मन में भी यह बात बैठ गई । बहन बेचारी अब क्या करती। सिकन्दरों ने कुन्जियाँ उसके हाथ से ले ली और सिलविल के सारे कपड़े निकाल-निकाल- कर रेग डाले । रुमाल तक न छोड़ा। जव चम्पा ने उन कपड़ो को आंगन में अलगनी पर सूखने को डाल दिया तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी रंगरेज ने व्याह के जोड़े रेंगे हों। सिलविल ऊपर बैठे-बैठे यह तमाशा देख रहे थे ; पर ज़बान न खोलते थे। छाती पर सांप-सा लोट रहा था। सारे कपड़े खराव हो गये, दफ्तर जाने को भी कुछ न वचा । इन दुष्टों को मेरे कपड़ों से न-जाने क्या वैर था। घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यन्जन बन रहे थे । मुहल्ले की एक ब्राह्मणी के साथ चम्पा भी जुती हुई थी। दोनों भाई और कई अन्य सज्जन आंगन में भोजन करने बैठे, तो बड़े साले ने चम्पा से पूछा-कुछ उनके लिए भी खिचड़ी-विचढ़ी बनाई है ? पूरियाँ तो बेचारे आज खा न सकेंगे ! चम्पा ने कहा-अभी तो नहीं बनाई, अव बना लूंगी। 'वाह री तेरी अक्ल । अभी तक तुझे इतनी फिक्र नहीं कि वह विचारे खायेंगे क्या । तू तो इतनी लापरवा कभी न थी । जा निकाल ला जल्दी से चावल और मूंग की दाल।' लीजिए, खिचड़ी पकने लगी। इधर मित्रो ने भोजन करना शुरू किया । सिल- बिल ऊपर बैठे अपनी किस्मत को रो रहे थे। उन्हें इस सारो विपत्ति का एक ही कारण मालूम होता था- विवाह ! चम्पा न आती, तो ये साले क्यों आते, कपड़े क्यों खराब होते, होली के दिन लूंग की खिचड़ी क्यो खाने को मिलती , मगर अब पछताने से 3B .
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