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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१६५

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अग्नि-समावि १६१ सपर्क हुआ, वह पयाग के जेब-खर्च की मद मे आ गई। अतएव जीविका का प्रश्न दिन-दिन चिन्तोत्पादक रूप धारण करने लगा। इन सत्सगों के पहले यह दपति गांव मे मजदूरी करता था। रुक्मिन लकड़ियाँ तोड़कर बाजार ले जाती, पयाग कभी आरा चलाता, कभो हल जोतता, कभी पुर हाँकता। जो काम सामने आ जाय, उसमें जुट जाता था । हँसमुख, श्रमशील, विनोदी, निद्वंद्व आदमी था और ऐसा आदमी कभो भूखों नहीं मरता । उस पर नम्र इतना कि किसी काम के लिए नहीं न करता। किसी ने कुछ कहा और वह 'अच्छा भैया' कहकर दौड़ा। इसलिए गाँव में उसका मान था। इसी की वदौलत निझ्दाम हो जाने पर भी दो-तीन साल उसे अविक कष्ट न हुआ। दोनो जून की तो बात ही क्या, जव महतो को यह ऋद्धि न प्राप्त थी, जिनके द्वार पर बैलो को तीन-तीन जोड़ियां बँधती थीं, तो पयाग किस गिनती मे या। हाँ, जून की दाल-रोटी मे सदेह न था। परन्तु अव यह समस्या दिन-दिन विषमतर होती जाती थी । उस पर विपत्ति यह यो कि रुक्मिन भी अब किसी कारण से उतनी पति- परायण, उतनी सेवाशोल, उतनी तत्पर न थी। नहीं, उसकी प्रगल्भता और वाचा- लता मे आश्चर्य-जनक विकास होता जाता था। अतएव पयाग को किसी ऐसी सिद्धि की आवश्यकता थी, जो उसे जीविका को चिता से मुक्त कर दे और वह निश्चित होकर भगवद्भजन और साधु-सेवा में प्रवृत्त हो जाय । एक दिन रुक्मिन बाजार से लकड़ियाँ बेचकर लौटो, तो पयाग ने कहा-ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊँ । रुक्मिन ने मुंह फेरकर कहा-दम लगाने की ऐसी चाट है, तो काम क्यो नहीं करते ? क्या आजकल कोई बावा नहीं है, जाकर चिलम भरो। पयाग ने योरी चढाकर कहा-भला चाहती है, तो पैसे दे दे, नहीं इस तरह तग करेगी, तो एक दिन कहीं निकल जाऊँगा, तव रोयेगी। रुक्मिन अंगूठा दिखाकर चोली - रोये मेरी वला। तुम रहते ही हो, तो कौन सोने का कौर खिला देते हो । अव भी छाती फाढ़ती हूँ, तव भी छाती फाईंगी। "तो अब यही फैसला है ?" "हां, हाँ, कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं है।" "गहने बनवाने के लिए पैसे हैं और मैं चार पैसे मांगता हूँ, तो यों जवाब देती है।" >