पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१६६

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१६२ मानसरोवर रुक्मिन तिनककर वोलो--"गहने बनवाती हूँ, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है ? तुमने तो पीतल का छत्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता।" पयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ वज गये, तव रुक्मिन ने किवाड बद कर लिये। समझी गांव में कहीं छिपा बैठा होगा, समझता होगा, मुझे मनाने आयेगी, मेरी वला जाती है। जव दूसरे दिन भी पयाग न आया, तो रुक्मिन को चिंता हुई। गाँव-भर छान आई। चिडिया किसी अड्डे पर न मिली। उस दिन उसने रसोई नहीं वनाई । रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आँखें न लगीं । शका हो रही थी, पयाग सचमुच तो विरक्त नहीं हो गया। उसने सोचा, प्रात काल पत्ता-पत्ता छान डालूंगी, किसी साधु-सत के साथ होगा । जाकर थाने में रपट कर दूंगी। अभी तड़का ही था कि रुक्मिन थाने में चलने को तैयार हो गई । किवाड़ वन्द करके निकली ही थी कि पयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था । उसके पीछे-पीछे एक स्त्री भो थी । उसकी छींट की साड़ी, रँगी हुई चादर, लना चूंघट और शर्मीली चाल देखकर रुक्मिन का कलेजा धक् से हो गया। वह एक क्षण हत- बुद्धि-सी खड़ी रही, तव वढकर नई सौत को दोनों हाथों के बीच में ले लिया और उसे इस भाँति धीरे-धीरे घर के अदर ले चली, जैसे कोई रोगी जीवन से निराश होकर विष-पान कर रहा हो। जव पड़ोसिनों की भीड़ छंट गई, तो रुक्मिन ने पयाग से पूछा- इसे कहाँ से लाये 2 पयाग ने हँसकर कहा-घर से भागी जाती थी, मुझे रस्ते में मिल गई । घर का काम-धधा करेगी, पढ़ी रहेगी। "मालूम होता है, मुझसे तुम्हारा जी भर गया।" पयाग ने तिरछी चितवनो से देखकर कहा-दुत पगली, इसे तेरी सेवा-टहल करने को लाया हूँ। "नई के आगे पुरानी को कौन पूछता है ?" "चल, मन जिससे मिले वही नई है, मन जिससे न मिले वही पुरानी है । ला, कुछ पैसे हों तो दे दे, तीन दिन से दम नहीं लगाया, पैर सीधे नहीं पड़ते । हाँ, देख, दो-चार दिन इस वेचारी को खिला-पिला दे, फिर तो आप ही काम करने लगेगी।"